संक्षिप्त परिचय : हमारे समाज में कुछ कुरीतियाँ इतनी अंदर समा गयी हैं कि वे हमें बर्बाद कर रही हैं और हमें ही नहीं पता चल रहा है। इन ही कुछ कुरीतियों की तरफ़ इशारा करती है प्रकृति और समाज के बीच का रिश्ता समझाती यह हिन्दी में कविता ।
यदि होती जाति-पाति उस वक्त
जब खून की नदियाँ बही थी,
ना हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई खून बहता
अंग्रेजी हुकूमत आज भी बराबर बना होता।
आजादी तो मिली मगर बवाल खड़ा हो गया
सब जातियाँ बँट गयीं यह सवाल खड़ा हो गया,
मरे जा रहे हैं, आपस में लड़े जा रहे हैं
सिर्फ अपनी ही जाति का मुहर लगाने में,
मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम इंसान हो या गिद्ध,
जो जातियों में घुसकर भारत को नोंच-नोंचकर खा रहे हो।
एक तरफ कहते फिरते हम सब आपस में भाई -भाई हैं,
तो दूसरी तरफ अब एक दूसरे के कसाई बने बैठे हैं,
जितनी मनमानी करनी हो कर लो वक्त आयेगा,
जब तुम्हारा नामोनिशान मिट जायेगा,
रोवोगे,चिल्लाओगे और रहम की भीख भी मांगोगे,
लेकिन प्रकृति कभी माफ नहीं करती यह गाँठ बांध लो।
ये धन का माहुर लिये जो घूमते-फिरते हो कि मुझसे बड़ा धनवान कोई नहीं,
दिन में दस ठाठ और रात में रंगरलिया मनाते नजर आते हो,
यह सब चंद सेकेण्ड का ही आडम्बर है जो तुमने ओढ़कर रखा है।
धनहीन को तुम तुच्छ नजर से देखते हो,
याद रखो ये धन धरा का धरा रह जायेगा,
चार कंधा भी नसीब नहीं होगा।
वक्त कम है अभी भी संभल जाओ वरना बेवक्त मारे जाओगे,
धनहीन और गरीबों से प्रेम दिखाओ बच जाओगे,
वरना प्रकृति का जब ताण्डव होगा धन समेत रज में मिल जाओगे।
-भाऊ पवन हिंदुस्तानी
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कविता की लेखक पवन कुमार पाण्डेय”भाऊ हिंदुस्तानी” के बारे में जानने के लिए पढ़ें ।
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