नीलकंठ – मोर | Neelkanth Mor | कहानी पढ़ने के लिए

महादेवी वर्मा की रचना | story written by Mahadevi Verma in Hindi

नीलकंठ मोर neelkanth peacock | Hindi stories | Kahaniya | हिंदी कहानिया | Hindi short stories

संक्षिप्त परिचय: एक मोर के सरल स्वभाव की और उसकी अपनी भावनाओं की कहानी। ऐसा क्या हुआ कि वो मोर अपनी साथी मोरनी को छोड़ कर जाने लगा? क्यों सब का ध्यान रखने वाला नीलकंठ उदासीन हो गया? पढ़िए महादेवी वर्मा की कहानी “नीलकंठ मोर” में।

प्रयाग जैसे शान्त और सांस्कृतिक आश्रम-नगर में नखास-कोना एक विचित्र स्थिति रखता है । जितने दंगे -फसाद और छुरे चाकूबाजी की घटनाएँ घटित होती हैं, सबका अशुभारम्भ प्राय: नखासकोने से ही होता है ।

उसकी कुछ और भी अनोखी विशेषताएँ है । घास काटने की मशीन के बड़े-चौड़े चाकू से लेकर फरसा, कुल्हाडी, आरी, छुरी आदि में धार रखने वालों तक की दुकानें वहीं हैं । अतः गोंठिल चाकू-छुरी को पैना करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं है । आँखों का सरकारी अस्पताल भी वहीं प्रतिष्ठित है । शत्रु-मित्र की पहचान के लिए दृष्टि कमजोर हो तो वहाँ ठीक करायी जा सकती है, जिससे कोई भूल होने की सम्भावना न रहे । इसके अतिरिक्त एक और अस्पताल उसी कोने में गरिमा पूर्ण ऐतिहासिक स्थिति रखता है । आहत, मुमूर्ष व्यक्ति की दृष्टि से यह विशेष सुविधा है । यदि अस्पताल के अन्त:कणों में स्थान न मिले, यदि डाक्टर, नर्स आदि का दर्शन दुर्लभ रहे तो बरामदे-पोर्टिको आदि में विश्राम प्राप्त हो सकता है और यदि वहाँ भी स्थानाभाव हो, तो अस्पताल के कम्पाउण्ड में मरने का संतोष तो मिल ही सकता है ।

यहाँ मत्स्य क्रय-विक्रय केन्द्र भी है और तेल-फुलेल की दुकान भी, मानो दुगंन्ध-सुगन्ध में समरसता स्थापित करने का अनुष्ठान है ।

हमारे देश में अस्पताल, साधारण जन को अन्तिम यात्रा में संतोष देने के लिए ही तो हैं । किसी प्रकार घसीटकर, टांगकर उस सीमा-रेखा में पहुंचा आने पर बीमार और उसके परिचारकों को एक अनिर्वचनीय आत्मिक सुख प्राप्त होता है । इससे अधिक पाने की न उसकी कल्पना है, न माँग । कम-से-कम इस व्यवस्था ने अंतिम समय मुख में गंगाजल, तुलसी, सोना डालने की समस्या तो सुलझा ही दी है ।

यहाँ मत्स्य क्रय-विक्रय केन्द्र भी है और तेल-फुलेल की दुकान भी, मानो दुगंन्ध-सुगन्ध में समरसता स्थापित करने का अनुष्ठान है ।

पर नखासकोने के प्रति मेरे आकर्षण का कारण, उपयुक्त विशेषताएँ नहीं हैं । वस्तुत: वह स्थान मेरे खरगोश, कबूतर, मोर, चकोर आदि जीव-जंतुओं का कारागार भी है । अस्पताल के सामने की पटरी पर कई छोटे-छोटे घर और बरामदे हैं, जिनमे ये जीव-जन्तु तथा इनके कठिन हृदय जेलर दोनो निवास करते हैं ।

छोटे-बडे़ अनेक पिंजरे बरामदे में और बाहर रखे रहते हैं, जिनमे दो खरगोशों के रहने के स्थान में पच्चीस और चार चिड़ियों के रहने के स्थान में पचास भरी रहती है । इन छोटे जीवों को हँसने-रोने के लिए भिन्न ध्वनियाँ नहीं मिली हैं । अतः इनका महाकलरव  महाक्रन्दन भी हो तो आश्चर्य नहीं । इन जीवों के कष्ठनिवारण का कोई उपाय न सुझ पाने पर भी मैं अपने आपको उस ओर जाने से नहीं रोक पाती । किसी पिंजड़े में पानी न देखकर उसमें पानी रखवा देती हूँ । दाने का अभाव हो तो दाना डलवा देती हूँ । कुछ चिड़ियों को खरीदकर उड़ा देती हूँ । जिनके पंंख काट दिये गये हैं, उन्हें ले आती हूँ । परन्तु फिर जब उस ओर पहुँच जाती हूँ, सब कुछ पहले जैसा ही कष्ट-कर मिलता है ।

उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर लौट रही थी कि चिड़ियों और खरगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया ।

बडे़ मियाँ चिड़िया वाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया । मेरे कोई प्रश्न करने के पहले ही उन्होंने कहना आरम्भ किया, “सलाम गुरूजी । पिछली बार आने पर आपने मोर के बच्चों के लिए पूछा था । शंकरगढ़ से एक चिड़ीमार दो मोर के बच्चे पकड लाया है, एक मोर है, एक मोरनी । आप पाल लें । मोर के पंजों से दवा बनती है, सो ऐसे ही लोग खरीदने आये थे । आखिर मेरे सीने में भी तो इन्सान का दिल है । मारने के लिए ऐसी मासूम चिड़ियों को कैसे दे दूँ  । टालने के लिए मैंने कह दिया, गुरुजी ने मँगवाये हैं । वैसे यह कम्बख्त रोजगार ही खराब है । बस, पकड़ो पकड़ो, मारो-मारो ।'”

बड़े मियाँ के भाषण की तूफान मेल के लिए कोई निश्चित स्टेशन नहीं है । सुनने वाला थक कर जहाँ रोक दे, वहीं स्टेशन मान लिया जाता है । इस तथ्य के परिचित होने के कारण ही मैंने बीच ही में उन्हें रोककर पूछा, “मोर के बच्चे हैं कहाँ ?”‘ बड़े मियाँ के हाथ के संकेत का अनुसरण करते हुए मेरी दृष्टि एक तार के छोटे-से पिंजड़े तक पहुँची, जिसमें तीतरों के समान दो बच्चे बैठे थे । मोर हैं, यह मान लेना कठिन था! पिंजडा इतना संकीर्ण था कि वे पक्षि-शावक जाली के गोल फ्रेम में कसे-जड़े चित्र जैसे लग रहे थे ।

मेरे निरीक्षण के साथ-साथ बड़े मियाँ की भाषण-मेल चली जा रही थी । “ईमान कसम, गुरुजी, चिड़ीमार ने मुझसे इस मोर के जोड़े के नकद तीस रुपये लिये हैं । बारहा कहा, भई जरा सोच तो अभी इनमें मोर की कोई खासियत भी है कि तू इतनी बड़ी कीमत ही माँगने चला । पर वह मूँजी क्यों सुनने लगा ।आपका खयाल करके अछता-पछता कर देना ही पड़ा।अब आप जो मुनासिब समझें ।” अस्तु, तीस चिड़ीमार के नाम के और पाँच बड़े मियाँ के ईमान के देकर जब मैंने वह छोटा पिंजरा कार में रखा, तब मानो वह जाली के चौखटे का चित्र जीवित हो गया । दोनो पक्षि-शावकों के छटपटाने से लगता था, मानों पिंजडा ही सजीव और उड़ने योग्य हो गया है ।

चिढ़ा दिये जाने के कारण ही संभवतः उन दोनो पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई ।

घर पहुँचने पर सब कहने लगे, तीतर है, मोर कहकर ठग लिया है । कदाचित अनेक बार ठगे जाने के कारण ही ठगे जाने की बात मेरे चिढ़ जाने की दुर्बलता बन गई है । अप्रसन्न होकर मैंने कहा, “मोर के क्या सुर्खाब के पर लगे हैं । है तो पक्षी ही । और तीतर-बटेर क्या लम्बी पूंछ न होने के कारण उपेक्षा योग्य पक्षी हैं ?” चिढ़ा दिये जाने के कारण ही संभवतः उन दोनो पक्षियों के प्रति मेरे व्यवहार और यत्न में कुछ विशेषता आ गई ।

पहले अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में उनका पिंजड़ा रखकर उसका दरवाजा खोला, फिर दो कटोरों में सत्तू की छोटी-छोटी गोलियाँ और पानी रखा । वे दोनो चूहेदानी जैसे पिंजड़े से निकल कर कमरे में मानो खो गए । कभी मेज के नीचे घुस गए, कभी आलमारी के पीछे । अन्त में इस लुका-छिपी से थककर, उन्होंने मेरी रद्दी कागज़ों की टोकरी को अपने नये बसेरे का गौरव प्रदान किया । दो-चार दिन वे इसी प्रकार दिन में इधर-उधर गुप्तवास करते और रात में रद्दी की टोकरी में प्रकट होते रहे । फिर आश्वस्त हो जाने पर कभी मेरी मेज पर, कभी कु्र्सी पर और कभी मेरे सिर पर अचानक आविभूर्त होने लगे । खिड़कियों में तो जाली लगी थी, पर दरवाज़ा मुझे निरंतर बन्द रखना पड़ता था । खुला रखने पर चित्रा (मेरी बिल्ली) इन नवागन्तुकों का पता लगा सकती थी और तब उसकी शोध का क्या परिणाम होता, यह अनुमान करना कठिन नहीं है । वैसे वह चूहों पर भी आक्रमण नहीं करती, परन्तु यहाँ तो सर्वथा अपरिचित पक्षियों की अनाधिकार चेष्टा का प्रश्न था । उसके लिए दरवाज़ा बन्द रहे और ये दोनो (उसकी दृष्टि में) ऐरे-गैरे मेरी मेज को अपना सिंहासन बना लें, यह स्थिति  चित्रा जैसी अभिमानिनी मार्जारी के लिए असह्य ही कही जाएगी ।

जब मेरे कमरे का कायाकल्प चिड़ियाखाने के रूप में होने लगा, तब मैंने बड़ी कठिनाई से दोनो चिड़ियों को पकड़कर जाली के बड़े घर में पहुंचाया, जो मेरे जीव-जंतुओं का सामान्य निवास है ।

दोनो नवागन्तुको ने पहले से रहने वालों में वैसा ही कुतूहल जगाया, जैसा नववधू के आगमन पर परिवार में स्वाभाविक है । लक्का कबूतर नाचना छोडकर दौड़ पडे और उनके चारों और घूम-घूम कर गुटर्गूँ-गुटर्गूँ  की रागिनी अलापने लगे । बड़े खरगोश सभ्य सभासदों के समान क्रम से बैठकर गम्भीर भाव से उनका निरीक्षण करने लगे । ऊन की गेंद जैसे छोटे खरगोश उनके चारों ओर उछल-कूद मचाने लगे । तोते मानो भली-भाँति देखने के लिए एक आँख बन्द करके उनका परीक्षण करने लगे । ताम्रचूड़ झूले से उतर कर और दोनो पंखों को फैलाकर शोर करने लगा । उस दिन मेरे चिड़ियाघर में मानो भूचाल आ गया ।

धीरे-धीरे दोनो मोर बच्चे बढ़ने लगे । उनका कायाकल्प वैसा ही क्रमश: और रंगमय था, जैसा इल्ली से तितली का बनना । मोर के सिर की कलगी और सघन, ऊंची तथा चमकीली हो गयी । चोंच अधिक बंकिम और पैनी हो गयी, गोल आँखों में इन्द्रनील की नीलाभ धुति झलकने लगी । लम्बी लील-हरित ग्रीवा की हर भंगिमा में घूपछाँही तरंगें उठने-गिरने लगीं । दक्षिण-वाम दोनो पंखों में स्लेटी और सफेद आलेखन स्पष्ट होन लगे । पूँछ लम्बी हुई और उसके पंखों पर चंद्रिकाओं के इन्द्रधनुषी रंग उद्दीप्त हो उठे । रंग-रहित पैरों को गर्वीली गति ने एक नयी गरिमा से रंजित कर दिया । उसका गर्दन ऊँची कर देखना विशेष भंगिमा के साथ उसे नीचा कर दाना चुगना, पानी पीना, टेढ़ी कर शब्द सुनना आदि क्रियाओं में जो सुकुमारता और सौंदर्य था , उसका अनुभव देखकर ही किया जा सकता है । गति का चित्र नहीं आंका जा सकता ।

नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा ।

मोरनी का विकास मोर के समान चमत्कारिक तो नहीं हुआ परन्तु अपनी लम्बी धूपछाँही गर्दन, हवा में चंचल कलगी, पंखों की श्याम-श्वेत पत्रलेखा, मंथर गति आदि से वह भी मोर की उपयुक्त सहचारिणी होने का प्रमाण देने लगी ।

नीलाभ ग्रीवा के कारण मोर का नाम रखा गया नीलकंठ और उसकी छाया के समान रहने के कारण मोरनी का नामकरण हुआ राधा । मुझे स्वय ज्ञान नहीं कि कब नीलकंठ ने अपने-आपको चिड़ियाघर के निवासी जीव-जन्तुयों का सेनापति और संरक्षक नियुक्त कर लिया । सवेरे ही वह सब खरगोश, कबूतर आदि की सेना एकत्र कर उस ओर ले जाता, जहाँ दाना दिया जाता है और घूम-घूमकर मानो सबकी रखवाली करता रहता । किसी ने कुछ गड़बड़ की और वह अपने तीखे चंचु-प्रहार से उसे दण्ड देने दौड़ा ।

खरगोश के छोटे और शरीर बच्चों को वह चोंच से उनके कान पकड़कर उठा लेता था और जब तक के आर्तक्रंदन न करने लगते, उन्हें अधर में लटकाये रखता । कभी-कभी उसकी पैनी चोंच से खरगोश के बच्चों का कर्णवेध संस्कार हो जाता पा, पर वे फिर कभी उसे क्रोधित होने का अवसर न देते थे । उसके दंड-विधान के समान ही उन जीव-जंतुओं के प्रति उसका प्रेम भी असाधारण था । प्रायः वह मिट्टी में पंख फैला कर बैठ जाता और वे सब उसकी लंबी पूंछ और सघन पंखों में छुआ-छुऔअल-सा खेलते रहते थे ।

एक दिन उसके अपत्यस्नेह का हमें ऐसा प्रमाण मिला कि हम विस्मित हो गए । कभी-कभी खरगोश, कबूतर आदि साँप के लिए आकर्षण बन जाते हैं और यदि जाली के घर से पानी निकलने के लिए बनी नालियों में से कोई खुली रह जाए तो उसका भीतर प्रवेश पा लेना सहज हो जाता है । ऐसी ही किसी स्थिति में एक साँप जाली के भीतर पहुँच गया । सब जीव-जन्तु भागकर इधर-उधर छिप गये, केवल एक शिशु खरगोश साँप की पकड में आ गया । निगलने के प्रयास में साँप ने उसका आधा पिछला शरीर तो मुँह में दबा रखा था, शेष आधा जो बाहर था, उससे चीं-चीं का स्वर भी इतना तीव्र नहीं निकल सकता था कि किसी को स्पष्ट सुनाई दे सके । नीलकंठ दूर ऊपर झूले मे सो रहा था । उसी के चौकन्ने कानों ने उस मंद स्वर की व्यथा पहचानी और वह पुंछ-पंख समेटकर सर्र से एक झप्पट्टे में नीचे आ गया ।

संभवत: अपनी सहज चेतना से ही उसने समझ लिया होगा कि साँप के फन पर चोंच मारने से खरगोश भी घायल हो सकता है । उसने साँप को फन के पास पंजों से दबाया और फिर चोंच से इतने प्रहार किये कि वह अधमरा हो गया । पकड़ ढीली पड़ते ही खरगोश का बच्चा मुख से निकल आया, परन्तु निशचेष्ट-सा वहीं पडा रहा ।

राधा ने सहायता देने की आवश्यकता नहीं समझी, परन्तु अपनी मन्द केका से किसी असामान्य घटना की सूचना सब ओर प्रसारित कर दी । माली पहुँचा, फिर हम सब पहुँचे । नीलकंठ जब साँप के दो खण्ड कर चुका, तब उस शिशु खरगोश के पास गया और रात भर उसे पंखों के नीचे उष्णता देता रहा । कार्तिकेय ने अपने युद्ध-वाहन के लिए मयूर को क्यों चुना होगा, यह उस पक्षी का रूप और स्वभाव देखकर समझ में आ जाता है ।मयूर कलाप्रिय वीर पक्षी है, हिंसक मात्र नहीं । इसी से उसे बाज, चील आदि की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिनका जीवन ही क्रूरकर्म है । नीलकंठ में उसकी जातिगत विशेषताएँ तो थीं ही, उनका मानवीकरण भी हो गया था ।

मेघों की सांवली छाया में अपने इन्द्रधनुष के गुच्छे जैसे पंखो को मण्डलाकार बनाकर जब वह नाचता था, तब उस नृत्य में एक सहजात लय-ताल रहता था। आगे-पीछे, दाहिने-बाएँ क्रम से घुमाकर वह किसी अलक्ष्य सम पर ठहर-ठहर जाता था ।

जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड-खंड कर सकता था, उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले-हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी और विस्मय भी होता था ।

राधा नीलकंठ के समान नहीं नाच सकती थी, परन्तु उसकी गति में भी छन्द रहता था । वह नृत्यमग्न नीलकंठ के दाहिनी ओर के पंख को छूती हुई बायीं ओर निकल आती थी और बाएँ पंख को स्पर्श कर दाहिनी ओर । इस प्रकार उसकी परिक्रमा में भी एक पूरक ताल का परिचय मिलता था । नीलकंठ ने कैसे समझ लिया कि उसका नृत्य मुझे बहुत भाता है, यह तो नहीं बताया जा सकता; परन्तु अचानक एक दिन वह मेरे जालीघर के पास पहुँचते ही, अपने झुले से उतरकर नीचे आ गया और पंखों का सतरंगी मण्डलाकार छाता तानकर नृत्य की भंगिमा में खडा हो गया । तब से यह नृत्य-भंगिमा नृत्य का क्रम बन गयी । प्राय: मेरे साथ कोई न कोई देशी-विदेशी अतिथि भी पहुँच जाता था और नीलकंठ की मुद्रा को अपने प्रति सम्मान सूचक समझकर विस्मयाभिभूत हो उठता था । कई विदेशी महिलाओं ने उसे “परफैक्ट जेंटिलमेन ” की उपाधि दे डाली ।

जिस नुकीली पैनी चोंच से वह भयंकर विषधर को खंड-खंड कर सकता था, उसी से मेरी हथेली पर रखे हुए भुने चने ऐसी कोमलता से हौले-हौले उठाकर खाता था कि हँसी भी आती थी और विस्मय भी होता था । फलों के वृक्षों से अधिक उसे पुष्पित और पल्लवित वृक्ष भाते थे ।

वसंत में जब आम के वृक्ष सुनहली मंजरियों से लद जाते थे, अशोक नये लाल पल्लवों से ढंक जाता था, तब जालीघर मे वह इतना अस्थिर हो उठता था की उसे बाहर छोड़ देना पड़ता । पर जब तक राधा को भी मुक्त न किया जाए, वह दरवाजे के बाहर ही उपालम्भ की मुद्रा में खड़ा रहता । मंजरियों के बीच उसकी नीलाभ झलक संध्या की छाया से सुनहले सरोवर में नीले कमल-दलों का भ्रम उत्पन्न कर देती थी । हवा से तरंगायित अशोक के रक्तिमाभ पत्तों में तो वह मूंगे के फलक पर मरकत से बना चित्र जान पड़ता था ।

नीलकंठ और राधा की सबसे प्रिय ऋतु तो वर्षा ही थी । मेघों के उमड़ आने से पहले ही वे हवा में उसकी सजल आहट पा लेते थे और तब उनकी मन्द्र केका की गूंज-अनुगूंज तीव्र से तीव्र-तर होती हुई मानो बूंदों के उतरने के लिए सोपान- पंक्ति बनने लगती थी । मेघ के गर्जन के ताल पर ही उसके तन्मय नृत्य का आरम्भ होता । और फिर मेघ जितना अधिक गरजता, बिजली जितनी अधिक चमकती, बूँदों की रिमझिमाहट जितनी तीव्र होती जाती नीलकंठ के नृत्य का वेग उतना ही अधिक बढ़ता जाता और उसकी केका का स्वर उतना हो मन्द्र से मन्द्रतर होता जाता । वर्षा के थम जाने पर वह दाहिने पंजे पर दाहिना पंख और बाएँ पर बायाँ पंख फैलाकर सुखाता । कभी-कभी वे दोनों एक-दूसरे के पंखों से टपकने वाली बूँदों को चोंच से पी-पीकर पंखों का गीलापन दूर करते रहते ।


इस आनन्दोत्सव की रागिनी में बेमेल स्वर कैसे बज उठा, यह भी एक करुण कथा है ।

एक दिन मुझे किसी कार्य से नखासेकोने से निकलना पड़ा और बड़े मियाँ ने पहले के समान कार को रोक लिया । इस बार किसी पिंजडे की ओर नहीं देखूंगी, यह संकल्प करके मैंने बड़े मियाँ की विरल दाढी और सफेद डोरे से कान में बँधी ऐनक को ही अपने ध्यान का केन्द्र बनाया । पर बड़े मियाँ के पैरों के पास जो मोरनी पड़ी थी उसे अनदेखा करना कठिन था । मोरनी राधा जैसी ही थी । उसके मूँज से बंधे दोनो पंजों की उँगलियाँ टूट-कर इस प्रकार एकत्र हो गई थी कि वह खड़ी ही नहीं हो सकती थी ।

बडे मियाँ की भाषण-मेल फिर दौड़ने लगी – “देखिये गुरुजी, कम्बख्त चिड़ीमार ने बेचारी का क्या हाल किया है । ऐसे कभी चिड़िया पकड़ी जाती है । आप न आयी होतीं तो मैं उसी के सिर इसे पटक देता । पर आपसे भी यह अधमरी मोरनी ले जाने की कैसे कहूँ ।”

सारांश यह की सात रुपये देकर मैं उसे अगली सीट पर रखवा कर घर ले आयी और एक बार फिर मेरे पढ़ने-लिखने का कमरा अस्पताल बना । पंजों की मरहम-पट्टी और देखभाल करने पर वह महीने भर में अच्छी हो गयी । उँगलियों वैसी हो टेढ़ी-मेढ़ी रहीं, परन्तु वह ठूंठ जैसे पंजों पर डगमगाती हुई चलने लगी । तब उसे जालीघर में पहुँचाया गया और नाम रखा गया कुब्जा । कुब्जा नाम के अनुरूप स्वभाव से भी वह कुब्जा प्रमाणित हुई ।

अब तक नीलकंठ और राधा साथ रहते थे । अब कुब्जा उन्हें साथ देखते ही मारने दौड़ती । चोंच से मार-मारकर उसने राधा की कलगी नोच डाली, पंख नोच डाले । कठिनाई यह थी कि नीलकंठ उससे दूर भागता था और वह उसके साथ रहना चाहती थी । न किसी जीव-जन्तु से उसकी मित्रता थी, न वह किसी को नीलकंठ के समीप आने देना चाहती थी । उसी बीच राधा ने दो अण्ड़े दिए, जिनको वह पंखों में छिपाए बैठी रहती थी । पता चलते ही कुब्जा ने चोंच मार-मार कर राधा को ढकेल दिया और फिर अंडे फोड़कर ठूँठ जैसे पैरों से सब ओर छितरा दिए ।

हमने उसे अलग बन्द किया तो उसने दाना-पानी छोड़ दिया और जाली पर सिर पटक-पटक कर घायल कर लिया । इस कलह-कोलाहल से और उससे भी अधिक राधा की दूरी से बेचारे नीलकंठ की प्रसन्नता का अन्त हो गया । कई बार वह जाली के घर से निकल भागा । एक बार कई दिन भूखा-प्यासा आम की शाखाओं में छिपा बैठा रहा, जहाँ से बहुत पुचकार कर मैंने उतारा । एक बार मेरी खिड़की के शेड पर छिपा रहा ।

“क्यों” का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है

मेरे दाना देने जाने पर वह सदा के समान अब भी पंखों को मंडलाकार बनाकर खड़ा हो जाता था, पर उसकी चाल में थकावट और आँखो में एक शून्यता रहती थी । अपनी अनुभवहीनता के कारण ही मैं आशा करती रही कि थोडे दिन बाद सबमें मेल हो जायगा । अन्त में तीन-चार मास के उपरान्त एक दिन सबेरे जाकर देखा कि नीलकंठ पूँछ-पंख फैलाये धरती पर उसी प्रकार बैठा हुआ है, जैसे खरगोश के बच्चों को पंख में छिपाकर बैठता था । मेरे पुकारने पर भी उसके न उठने पर संदेह हुआ ।

वास्तव में नीलकंठ मर गया था । “क्यों” का उत्तर तो अब तक नहीं मिल सका है । न उसे कोई बीमारी हुई; न उसके रंगबिरंगे फूलों के स्तबक जैसे शरीर पर किसी चोट का चिह्न मिला । मैं अपने शाल में लपेटकर उसे संगम ले गयी । जब गंगा की बीच धार में उसे प्रवाहित किया गया, तब उसके पंखों की चंद्रिकाओं से बिम्बित-प्रतिबिम्बित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा ।

नीलकंठ के न रहने पर राधा तो निशचेष्ट-सी कई दिन कोने में बैठी रहीं । वह कई बार भागकर लौट आया था, अत: वह प्रतीक्षा के भाव से द्वार पर दृष्टि लगाये रहती थी । पर कुब्जा ने कोलाहल के साथ खोज-ढूंढ आरम्भ की । खोज के क्रम में वह प्राय: जाली का दरवाजा खुलते ही बाहर निकल आती थी और आम अशोक, कचनार आदि की शाखाओं में नीलकंठ को ढूंढती रहती थी । एक दिन वह आम से उतरी ही थी की कजली (अल्से-शियन कुत्ती) सामने पड़ गई । स्वभाव के अनुसार उसने कजली पर चोंच से प्रहार किया । परिमाणतः कजली के दो दाँत उसकी गर्दन पर लग गए । इस बार उसका कलह-कोलाहल और द्वेष-प्रेम भरा जीवन बचाया न जा सका । परन्तु इन तीन पक्षियों ने मुझे पक्षि-प्रकृति की विभिन्नता का जो परिचय दिया है, वह मेरे लिए विशेष महत्त्व रखता है ।

राधा अब प्रतीक्षा में ही दुकेली है । आषाढ़ में जब आकाश मेधाच्छन्न हो जाता है, तब वह कभी ऊँचे झूले पर और कभी अशोक की डाल पर अपनी केका को तीव्र से तीव्रतर करके नीलकंठ को बुलाती रहती है ।


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