प्रवासी मज़दूर | A Hindi Poem on migrant workers

गुल सनोबर की कविता

प्रवासी मज़दूर | गुल सनोबर की कविता | A Hindi Poem on migrant workers

संक्षिप्त परिचय: जब मार्च २०२० में कोरोना वाइरस के चलते पूरे भारत में लॉक्डाउन लगा था तब प्रवासी मज़दूर ने खुद को असहाय पाया था और वे पैदल ही अपने घर के लिए निकलने पर मजबूर हो गए थे। ऐसे ही प्रवासी मज़दूर की पीड़ा के ऊपर है यह कविता।

मेरे पैर अब थकने लगे है….
मेरा शरीर अब जवाब दे चुका है…
पर मंज़िल अब भी दूर है…
मेरा घर अब भी कहीं दूर है।।

कंधों पर सामान लिए ,
संग परिवार,
अपने घर निकल चला हूँ मैं…
वो घर जो मेरा है…
जहां का मैं अपना हूँ।।

मैं भूखा हूँ…
हूँ मैं प्यासा…
कोई अपना हो तोह …
हाथ बढ़ा देना…
मैं भी एक इंसान हूँ…
इस इन्सानियत को ज़िंदा रहने देना।।

मैं आया था एक अतिथि की तरह …
यह मंज़र जो मैं आज देख रहा हूँ…
मैं शायद अब न लौटू?
और लौटू भी तो…
सम्मान के साथ लौटूंगा।।।

मैं आया था कुछ सपने लेकर…
आया था मैं अपना घर – बार चलाने..
इतने सालो जो तुमने  इतनी इज्जत बक्शी…
सवाल बस इतना…
आखिरी वक़्त पर ये साथ क्यों छोड़ दिया मेरा?


कैसी लगी आपको यह कविता, “प्रवासी मज़दूर”, जो एक कविता है कोरोना के समय प्रवासी मज़दूरों की मुश्किलों पर? कॉमेंट कर के ज़रूर बताएँ और कवयित्री को भी प्रोत्साहित करें।


कविता की लेखिका गुल सनोबर के बारे में जानने के लिए पढ़ें यहाँ 


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PC: Ashim D’Silva

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