पिघलता हुआ सन्नाटा | जीवन मूल्य पर कहानी

उषा रानी की कहानी | A Hindi story by Usha Rani

पिघलता हुआ सन्नाटा | उषा रानी की कहानी | जीवन मूल्य पर कहानी

संक्षिप्त परिचय : इस जगत में हम कई मनुष्य हैं, सब के जीवन अलग हैं, और जीवन भी ऐसा कि हर मोड़ पर कुछ ना कुछ नई सीख मिलती रहती है। यह कहानी ऐसे ही रोज़मर्रा की ज़िंदगी के माध्यम से जीवन के मूल्य को समझाती हुई।

सुबह होने से पहले ही शहर की सड़कों पर हलचल मच जाती हैं। नीम अंधेरे ही बहुत से लोग रोजगार की तलाश में घर से निकल जाते हैं। विशेष कर अखबार वाले लोगों की नींद ही अखबार के आ पड़ने की आवाज
के साथ ही खुलती है। दूसरे दूध वाले, वे तो आधी रात से ही अपने काम में लग जाते हैं। उनकी आवाज की गूँज भी लोगों की नींद उड़ा देती है।

घर में अखबार के आने की आवाज ने रमन बाबू को जगा दिया। अपने नीचे खिसके पाजामे को ऊपर खींचते हुए दरवाजे की तरफ लपके, अखबार उठाया। ऐसे उत्साह से खोला जैसे सामने के पृष्ठ पर उन्हीं की तस्वीर छपी हो।

समय ने अवाक् होकर देखा, अधिकतर घरों में समय इसी तरह गुजरता है।

रमन बाबू की पत्नी स्वाति भी उठ बैठी। उसने अपनी साड़ी ठीक करते हुए पूछा “चाय बना लाऊँ ? ”

रमन बाबू ने बिस्तर पर बैठते हुए कहा -“क्यों नहीं! आप के हाथ की चाय से दिन की शुरुआत हो तो दिन अच्छा हो जायेगा।”

स्वाति ने रमन बाबू के चेहरे की ओर देखा, चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई चिंता नहीं, न कोई मलाल, किसी प्रकार का दुख नहीं, शिकायत भी कभी नहीं करते। परन्तु स्वाति के उदास-निराश मन में जाने कितने शिकवे-गिले हैं, मन के आकाश में बादलों की तरह उमड़ते- घुमड़ते रहते हैं। वह अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने की कोशिश करती है। पर घर का सूनापन उसे पकड़ता है। घर में पति-पत्नी के अलावा कोई तीसरा प्राणी भी नहीं। बच्चे की किलकारी इस घर में कभी गूँजी ही नहीं। बहुत कोशिशों के बावजूद यह घर-आँगन खाली ही रहा। रमन बाबू की माँ ने इस चाहत के लिए खूब पूजा-पाठ कराये किन्तु कोई फल नहीं मिला। वो थी तब तक ये घर🏡 घर लगता था, अब वे भी नहीं रही। 🌹

तीन कमरों का मकान🏡 भरपूर भौतिक सुख-साधनों से सजा- संवरा, कभी मन को खुशियों से सराबोर करता था किन्तु अब कचरे का ढेर लगता है। एक वक्त था- जब जीवन में उमंगें थीं, उत्साह सागर की तरंगों सा लहराता था, आंखों में सपनों की चमक थी। वे रंग- बिरंगे सपने कुछ करने की प्रेरणा देते थे। कब सुबह हुई और कब शाम गुजर गयी पता ही नहीं चलता था। वह भरे-पूरे परिवार में बहू बनकर आई थी। सास- ससुर, ननदें-देवर सभी से घर चहकता था। किन्तु समय का बहाव और प्रकृति के नियमों ने धीरे-धीरे पेड़ से टूटे पत्तों की तरह सबको जुदा कर दिया। ननदें सुसराल चली गई, देवर भी अपनी नौकरी के लिए पहले बैंगलोर और बाद में अमेरिका चला गया। यहाँ था तो होली- दीवाली पर आ ही जाता था। किन्तु अब कभी-कभी फोन पर ही बात होती है। माँ- बाबूजी भी नहीं रहे। ऐसे में आया अकेलापन रमन बाबू ने स्वीकार लिया, किन्तु स्वाति अभी भी सदमे में है। वह अपने को बहुत समझाने की कोशिश करती है, लेकिन हर कोशिश सफल हो जरुरी तो नहीं। माँ- बाप के पुराने तरह के घर को नया रूप देते वक्त अपने छोटे भाई को वे नहीं भूले और न ही वे अपनी बहनों को भूले। मेहमान के लिए विशेष कमरा उन्होंने बनवाया, उसमें अटैच बाथरूम भी बनवाया ताकि जब भी कोई आये उन्हें असुविधा न हो नहीं कोई तकलीफ हो। रमन बाबू ने इस तरह अपने को परिवार के साथ जोड़ लिया। किन्तु स्वाति? 🌹

स्वाति को परिवार के तानों ने इतना दुखी कर दिया है, कि अब उनके लिए उसने मन की भावना की नदी को सुखा दिया है। इसलिए परिवार के लिए वे बिन-बुलाये मेहमान की अनचाही चीज हो गये हैं तो आश्चर्य नहीं। ये सच है कि साथ रहते हुए जो एक- दूसरे के दु:ख-दर्द में साझेदारी होती है, वो दूर होने पर नहीं रहती। ये भी सच ही है कि बड़े होकर व्यक्ति अपनों के लिए भी मेहमान ही तो हो जाता है। भोगोलिक दूरियों ने हमारे आत्मीय संबंधों को लील लिया है। साथ रहते हुए कोई औपचारिकता नहीं रहती, लेकिन दूर जाने पर आत्मीय संबंधों को अजनबी बना देती हैं। जो भाई छोटे से बड़े होते हुए निसंकोज कपड़े मांग कर पहन लेता है, रुपये- पैसे मांग लेता है, वही बड़े होने पर दूर जाने पर पराया- सा व्यवहार करने लगता है। वही, आज सामने आने पर न खुल कर बात करता है, न ही खुल कर हंसता है। नयी दुनिया, नये लोग और शायद बड़े हो जाने का एहसास – औपचारिक बना देता हैं। ये समय की करामात है या जिंदगी की चाल समझना मुश्किल है। बरसों हो गये अब तो उनकी सूरत देखने को तरस गए हैं। रमन बाबू और स्वाति इंतजार करते रहते हैं। आने का कहते हैं किन्तु आ नहीं पाते हैं, न बहनें आती हैं और न ही भाई। अब उन्हें लगने लगा है कि उनके इस घर को, उनकी पारिवारिक जिंदगी को किसी की नज़र लग गयी है। जैसे ग्रहण लग गया हो। तभी तो अकेलापन, सूनापन उनके घर में आ पसरा है। दोनों पति-पत्नी नौकरी में हैं इसलिए दिन तो अतिव्यस्तता में निकल जाता है। किन्तु छुट्टी का दिन? अनेक प्रश्नों की झड़ी लगा देता है। मन-मस्तिष्क की कारा में अंधेरों का रंग ज्यादा उभर आता है। घनी बदली- सा मन, आँखों में आसुओं की गंगा-यमुना नदी- सा बन जाता है। समय की गति फिर भी नहीं रुकती यही मरहम का काम करती है। 🌹

चाहे दर्द का अहसास कितना भी गहरा हो, या गोला बन दिल में फंसा हो, रमन बाबू अपने को अखबार में एक-एक शब्द-वाक्य में व्यस्त रखते हुए छुट्टी का दिन व्यतीत करते हैं। स्वाति अपने को घर-गृहस्थी के कामों में उलझाये रखती है। स्वाति सोचती ज्यादा है, काम करते हुए भी भावनाओं में बह जाती है। अभी चाय बनाते उसके दिल- दिमाग में जिंदगी की फिल्म आँखों में घूम गयी। रात देवर सुधांशु का फोन आया था, जब-जब उसका फोन आता है वह और उदास हो जाती है। चाय उबलने लगी लेकिन उसका दिमाग सोच की भूल-भूलैया में भटक रहा है, कभी रसोई के बारे में सोचने लगती – आज रसोई में क्या बनाऊं? आलू के पराठे या दही बल्ले? पुलाव भी बनाया जा सकता है सब्जी, कौन सी बनाऊ? चाय की ट्रे उतारी, केतली में चाय छानी, दो कप रखे साथ में खारी और टोस्ट रखे फिर कमरे में आ गयी छोटी मेज पर रखी ट्रे केतली से चाय कप में डालने लगी। देखा भाप को निकलते तो सोच मे पड़ गयी -” काश! हम भी इस भाप की तरह होते जो ऊपर की ओर उड़ जाती। जिसकी गति पल भर की लेकिन कितनी ऊपर जाती है। एक वो पहाड़-सी जिंदगी ढो रही है” फिर सिर को झटका क्या स्वाति? अपने को संभाल पति के सामने सामान्य रह लेकिन रमन बाबू ने चौंकाने वाली खबर सुनाई -“जापान में भूकंप आ गया है।”

सुनकर स्वाति ने कहा -” तो मैं क्या करूँ? आप चाय लो। “

रमन बाबू ने कहा -“कैसी बात करती हो स्वाति? “

स्वाति ने कहा -“कैसी बात करती हूँ? जापान में भूकंप आया है तो मैं क्या कर सकती हूँ? यहाँ मेरी जिंदगी में भूकंप आया हुआ है, उसका क्या? कभी तुम्हें दिखाई देता है? “

रमन बाबू ने भरपूर मुलायम आवाज में कहा -” आजकल तुम ज्यादा ही सोचने लगी हो। भला हमारी जिंदगी में ऐसा क्या है कि उसे भूकंप कहा जाये? “

सुन कर स्वाति ने शर्मिंदगी महसूस की-“सच ही तो। ऊपर से शांत और सुखी जिंदगी है हमारी। न किसी से कुछ लेना- देना है, सभी सुविधाओं से युक्त भरापूरा घर है। और क्या चाहिए जिंदगी जीने के लिए। “

उसने स्वयं को समझाया -“रमन सही कह रहे हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे भूकंप कहा जाये। नहीं भूकंप तो बिल्कुल नहीं। हाँ घर में बच्चे के बिना एक दर्द का पहाड़ है, जो उसके सीने पर चट्टान की तरह पड़ा है। कभी कभी लगता है काला ऊंचा पहाड़ है, जिसके पार कुछ भी दिखाई नहीं देता। किसी कारा में बंद जिंदगी को घुटन-सी महसूस होती है। जहाँ जिंदगी थमी हुई- सी लगती है।” 🌹

रमन बाबू ने समझाने के लिए कहा -“स्वाति! हमें जापानियों से सीख लेनी चाहिए। जानती हो, इनमें इतना धैर्य होता है कि वे बड़े से बड़े भूकंप का सामना शांति पूर्वक कर लेते हैं। एक हम हैं, कि छोटी-छोटी बातों में उलझ कर रह जाते हैं। सोचो जिनके चार-चार बच्चे हुए, वे आज ढलती उम्र में भी अपने घर में अकेले रहते हैं। उनके बच्चे अच्छी पोस्ट पर काम करते हैं, फिर वे अपने माता पिता को अपने साथ क्यों नहीं रखते? या उनके साथ क्यों नहीं रहते?”

स्वाति ने अपने पति के हाथ से अखबार लेकर पढ़ना शुरू किया। भूकंप का तांडव तस्वीरों में प्रकाशित था। उजड़े परिवारों की दारुण गाथा को कई रुपों में देखा। सच ही संतान नहीं है तो क्या❓ जिन घरों में संतानों के होते हुए भी, बुढ़ापे में जो बुजुर्ग अकेले रहते हैं, या दुर्घटनाओं में मर जाते हैं, तो भी अकेले ही रहते हैं। जीवन की क्षणभंगुरता का एहसास हुआ। उसने अपने पति की ओर प्यार से देखा, जो शांत दिखाई दे रहे थे। स्वाति को अपने मन का सन्नाटा पिघलता हुआ लगा।

स्वरचित कहानी
उषारानी पुंगलिया
जोधपुर, राजस्थान


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