संक्षिप्त परिचय: लेखिका अप्पा को दाढ़ी बनाते हुए देखती हैं और फिर उनका भी मन करता है कि वो उनकी दाढ़ी बनाएँ। पर क्या वो उनकी दाढ़ी बना पाती हैं? जानने के लिए पढ़िए लेखिका तुलसी पिल्लई “वृंदा” की बचपन को याद करती यह कहानी “दाढ़ी बनाने की कला”।
बचपन में अपनी छोटी-छोटी आंखों से अक्सर अप्पा को उस्तरे से दाढी़ बनाते देखती थी।यह कार्य हमेशा मुझे आकर्षित करता रहा। मुझे यह लगने लगा कि मेरे चेहरे पर भी दाढ़ी जल्दी आए और मैं भी अप्पा के जैसे ही अपनी दाढ़ी बनाऊं।
एक दिन मैं अप्पा से बोली:-” मुझे भी अपनी दाढ़ी बनाने दो ना?”
वे बोले:-“आज नहीं कभी ओर बनाना।आज लेट हो रहा हूं।”
मैंने पूछा:-” तुम मुझे अपनी दाढ़ी बनाने दोगे न?”
उन्होंने कहा:-” हां बाबा हां। पक्का दाढ़ी बनाने दूंगा।अभी मेरा लेट हो रहा है।”
मैंने अप्पा का यह प्रस्ताव सहज स्वीकार कर लिया और मुझे बहुत खुशी हुई कि अप्पा मुझे अपनी दाढ़ी बनाने देंगे।अब मैं हर रोज इसी प्रतीक्षा में रहती थी कि अप्पा कब अपनी दाढ़ी बनाएंगे? और कभी कभी मैं उनको झूठ ही बोल दिया करती थी कि अप्पा तुम्हारी दाढी़ दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है।आज तुम दाढी़ बनाओगे नहीं क्या? मैं जब तुम्हारे गालों को चूमती हूं तो चुभती है। अगर दाढ़ी नहीं बनाओगे तो मैं तुम्हारे गालों को चूमूंगी नहीं।
अप्पा मेरी आदत जानते थे कि मैं जिद्दी हूं और उनकी दाढ़ी बनाने के लिए ज़िद करूंगी।
अप्पा बोले:-” आज नहीं। कल बनाऊंगा”
कल हुआ। अप्पा ने दाढ़ी नहीं बनाई।
मैंने फिर कहा:- अप्पा तुम्हारी दाढ़ी?
अप्पा बोले:- कल
इस तरह मैं हर रोज अप्पा को परेशान करने लगी।
एक दिन अप्पा मुझसे परेशान होकर बोले:-“मैं अब कभी दाढ़ी नहीं बनाऊंगा। जब मेरी दाढी बड़ी-बड़ी हो जाएगी तो मैं अपनी दाढ़ी को गूंथ कर दो लम्बी-लम्बी चोटिया बनाऊंगा और उस पर दो नींबू लटका दूंगा । मैं अच्छा लगूंगा न?”
यह सुझाव मुझे अच्छा लगा और कल्पना में अप्पा को इस तरह विचित्र रूप में देखकर चेहरे पर हंसी आ गई। मुझे कल्पना करके मजा आया। लेकिन मुझे तो अप्पा की दाढ़ी बनाकर देखना था कि कैसा अनुभव होता है?
मैंने कहा:-“अप्पा,तुम बहुत गन्दे लगोगे।”
अप्पा बोले कि कोई बात नहीं और अप्पा मेरी बातों को नकार गए।
अप्पा सदा अपनी दाढ़ी अब मेरी अनुपस्थिति में और छुपकर बनाया करते थे और जब मैं उनसे पूछती थी कि अप्पा तुमने मुझे बिना बताए ही अपनी दाढ़ी बना ली? ऐसा क्यों किया?
तो वो अपने मस्तिष्क में जोर देकर कहते:-“अरे, मेरे दिमाग से यह बात उतर गई। आजकल मेरा दिमाग कमजोर हो गया है। मुझे कुछ भी याद नहीं रहता है।अगली बार जब दाढ़ी बनाऊंगा तब तुझे बता कर ही बनाऊंगा। ठीक है? “
मैं यह नहीं जानती थी कि इसमें अप्पा की कोई चालाकी है और बालमन तो सरल और भोला होता है।उस समय मन दिमाग का इस्तेमाल बहुत कम करता है। मैं अप्पा की बातों में फंसकर रह जाती थी।
एक दिन अप्पा मुझसे छुपकर पैदमा के घर के पीछे दाढ़ी बना रहे थे और मैं संयोगवश पैदमा के घर पहुंच गई।
पैदमा ने तमिल भाषा में यह चिल्ला कर कहा:-पोने वन्दरची। अर्थात् लड़की आ गई है।उस समय तमिल भाषा का ज्ञान नहीं था। लेकिन पैदमा का संकेत भली भांति जान गई थी कि जरूर कुछ गड़बड़ी है। मैं तुरंत घर के पीछे गई और अप्पा रंगे हाथों पकड़े गए। अप्पा जल्दी जल्दी अपने दाढ़ी बनाने का सामान और उस्तरे को छिपा रहे थे।
मैं ज़िद करने लगी। अप्पा मुझे एक बार दाढ़ी बनाने दो न? लेकिन अप्पा ने मेरा स्नेहिल प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया।
मुझे गुस्सा आया और मैं अप्पा से बोली:-“अप्पा,आज मुझे तुम्हारी दाढ़ी नहीं बनाने दोगे तो? अगर जब मेरी दाढ़ी आएगी तो मैं भी तुम्हें अपनी दाढ़ी बनाने नहीं दूंगी।”
अप्पा तो मेरी मुर्खता पर हंसते हुए बोले:-” तेरी दाढ़ी कभी नहीं आएगी।”
मैंने पूछा:-“क्यों?”
अप्पा बोले कि लड़कियो की दाढ़ी नहीं आती हैं।
मैंने पैदमा से जाकर पूछा।पैदमा अप्पा की बातों से सहमत थी। मैं निराश हो गई। अप्पा जब भी दाढ़ी बनाते थे … मेरी इच्छा होती कि मैं भी आईने के सामने खड़ी होकर अपनी टेढ़ी-मेढ़ी शक्ल बनाकर उस्तरे से दाढी़ बनाऊं। अप्पा को देखकर मेरी इच्छा बढ़ने लगी। वैसे मेरे पिताजी भी दाढ़ी बनाते थे। लेकिन उतना लगाव कभी उनसे नहीं रखा था कि कभी उनको कह पाऊं कि मुझे आपकी दाढ़ी बनानी है। अप्पा से मेरा एक रिश्ता था- मित्रता का, जहां मैं उन्हें अपने हमउम्र समझकर और सम्मान न देकर तू -तू शब्दों का प्रयोग भी बड़ी आसानी से कर लिया करती थी। ऐसा रिश्ता मेरे पिताजी से कभी सम्भव नहीं हुआ। मैंने तो बचपन से आज तक पिताजी से ज्यादा बात ही नहीं की। जबकि वे एक सरल और ईमानदार इंसान ही थे। लेकिन फिर भी पापा से बोलते समय मुझे संकोच और शर्मिंदगी महसूस होती थी । आगे जानकारी मिलेगी।
मैं इतना तो जान ही गई थी कि अब अप्पा मुझे कभी दाढ़ी नहीं बनाने देंगे। एक रोज अप्पा दाढ़ी बना रहे थे। मैं अप्पा को पटाने में जुट गई।
“अप्पा,बस एक बार दाढ़ी बनाने दो न? फिर तुमको कभी तंग नहीं करूंगी।बस एक बार…मान जाओ न ?”
अप्पा को शायद मुझ पर तरस आ गया हो। अप्पा ने मुझे दाढ़ी बनाने के लिए अपने हाथ में पकड़ा उस्तरा मेरे हाथ में थमा दिया। मैं उनकी दाढ़ी बनाने लगी। यह मेरे लिए बहुत खुशनुमा पल रहा। मैं दाढ़ी बनाने की कला में नौसीखिया थी। मेरे उस्तरे को चलाते समय अप्पा को चोट आ गई और अप्पा बोले उठें उफ़…आह… मुझे लगा कि वह तो कोई अभिनय कर रहे हैं। मैं उन पर हंसने लगी। अप्पा मेरे हाथ से उस्तरा लेने लगे। मैं कहां देने वाली थी? मैंने तो साफ साफ कह दिया कि अब पूरी दाढ़ी मैं ही बनाऊंगी और तुम चुपचाप बैठे रहोगे। वरना उस्तरा नहीं दूंगी। अप्पा के गालों में आई चोट से लहू निकलने लगा। लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। उस समय मुझे लगा कि यह अप्पा का एक अभिनय है। मैं वास्तविकता में दूर थी। उन्हें किसी प्रकार की चोट नहीं आई है। वैसे भी तो वो एक जादूगर हैं और जादू से अपना लहू निकाल रहे हैं। वो खुद भी कहते थे कि मैं एक जादूगर हूं।और हम सब बच्चों को कभी चॉकलेट ग़ायब करके बताते और कभी मुट्ठी में बंद सिक्के को। उन्होंने ऐसा ही कोई जादू किया है।
आखिर बेचारे अप्पा अब मेरे जिद्द के आगे करते भी क्या? पता नहीं मुझसे क्यों डरते थे?और मेरी हर बात को मानते थे। मैंने कहा चुपचाप बैठे रहो और वो चुपचाप बैठे रहे। ऐसा वो क्यों करते थे? मुझे ज्ञान नहीं। शायद यह उनका सरल स्वभाव था कि मेरे बालमन को खुशियां देना और शायद उनका उद्देश्य मुझे दुख पहुंचाना नहीं था। मैं निडरता से उस्तरा चलाती और अप्पा के गालों में चोट लग जाती और अप्पा उफ़…आह… कहकर रह जाते थे।जब तक अप्पा की दाढ़ी पूरी साफ नहीं हुई। तब तक मेरे हाथों से अप्पा के गालों में लगभग आठ-नौ चोट लग गई होगी और लहू निकलने लगा था।
मैं निडरता से यह कार्य इसलिए कर रही थी क्योंकि मैं अप्पा को दाढ़ी बनाते समय देखा करतीं थीं और अप्पा तो अपनी दाढ़ी इतनी जल्दी जल्दी पन्द्रह मिनट में बना लिया करते थे। उनको तो कोई चोट भी नहीं लगती थी। तो संभव है कि यह कार्य आसान ही है और चोट लगने जैसा विचार मेरे दिमाग में था ही नहीं। मुझे कहां पता था कि दाढ़ी बनना भी पुरूषों की एक कला होती है।
मेरे दाढ़ी बनाने के बाद अप्पा मेरी पैदमा से चोट पर कुछ लगने के लिए क्रीम मांग रहे थे और जब पैदमा को पता चला कि यह सब मैंने किया है तो उन्होंने अप्पा को ही डांट लगाई और पैदमा हंसते हुए बोली:-” और चढ़ा कर रखो बच्चों को सिर पर। उल्टे-सीधे काम का परिणाम उल्टा ही होता है। लेकिन बेचारे मेरे अप्पा लगभग कुछ दिनों तक चेहरे पर बोरोलीन क्रीम लगाकर घुमते नजर आए “
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लेखिका तुलसी पिल्लई “वृंदा”के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें यहाँ।
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खुबसूरत कहानी छोटी
So nice