गौरा मेरी बहिन के घर पली हुई गाय की वयःसन्धि तक पहुँची हुई बछिया थी । उसे इतने स्नेह और दुलार से पाला गया था कि यह अन्य गोवत्साओं से कुछ विशिष्ट हो गई थी!
बहिन ने एक दिन कहा, तुम इतने पशु-पक्षी पाला करतीं हो-एक गाय क्यों नहीं पाल लेतीं, जिसका कुछ उपयोग हो । वास्तव में मेरी छोटी बहिन श्यामा अपनी लौकिक बुद्धि में मुझसे बहुत बड़ी हैं और बचपन से उनकी कर्मनिष्ठा तथा व्यवहार कुशलता की बहुत प्रशंसा होती रही है, विशेषतः मेरी तुलना में ।
यदि वे आत्मविश्वास के साथ कुछ कहती हैं तो उनका विचार संक्रामक रोग के समान सुननेवाले को तत्काल प्रभावित करता है । आश्चर्य नहीं, उस दिन उनके प्रतियोगितावाद सम्बन्धी भाषण ने मुझे इतना अधिक प्रभावित किया कि तत्काल उस सुझाव का कार्यान्वयन आवश्यक हो गया ।
वैसे खाद्य की किसी भी समस्या के समाधान के लिए पशु-पक्षी पालना मुझे कभी नहीं लुभाया । बकरी, कुक्कुट, मछली आदि पालने के मूल उद्देश्य का ध्यान आते ही मेरा मन विद्रोह करने लगता है !
पर उस दिन मैंने ध्यानपूर्वक गौरा को देखा । पुष्ट लचीले पैर, भरे पुट्ठे, चिकनी भरी हुई पीठ, लम्बी सुडोल गर्दन, निकलते हुए छोटे-छोटे सींग, भीतर की लालिमा की झलक देते हुए कमल की दो अधखुली पंखड़ियाँ जैसे कान, लम्बी और अन्तिम छोर पर काले सघन चामर का स्मरण दिलानेवाली पूँछ, सब कुछ साँचे में ढला हुआ सा था। गाय को मानो इटैलियन मार्बल में तराशकर उस पर ओप दी गई हो ।
स्वस्थ पशु के रोमों की सफेदी में एक विशेष चमक होती है। गौरा की उज्ज्वलता देखकर ऐसा लगा, मानो उसके रोमों पर अभ्रक का चूर्ण मल दिया गया हो, जिसके कारण जिधर आलोक पड़ता था, उधर विशेष चमक उत्पन्न हो जाती थी।
गौरा को देखते ही मेरी पालने के सम्बन्ध में दुविधा निश्चय में बदल गई ।
गाय जब मेरे बँगले पर पहुँची, तब मेरे परिचितों और परिचारकों में श्रद्धा का ज्वार सा उमड़ आया। उसे लाल-सफेद गुलाबों की माला पहनाई गई, केशर-रोली का बड़ा सा टीका लगाया गया, घी का चौमुखा दिया जलाकर आरती उतारी गई और उसे दही-पेड़ा खिलाया गया । उसका नामकरण हुआ गौरगिनी या गौरा। पता नहीं, इस पूजा-अर्चना का उस पर क्या प्रभाव पड़ा, परन्तु वह बहुत प्रसन्न जान पड़ी । उसकी बड़ी चमकीली और काली आँखों में जब आरती के दिये की लौ प्रतिफलित होकर झिलमिलाने लगी, तब कई दिनों का भ्रम होने लगा। जान पड़ा, जैसे रात में काली दिखनेवाली लहर पर किसी ने कई दिये प्रभावित कर दिये हों ।
गौरा वास्तव में बहुत प्रियदर्शन थी, विशेषतः उसकी काली बिल्लौरी आँखों का तरल सोंदर्य तो दृष्टि को बाँधकर स्थिर कर देता था। चौड़े उज्ज्वल माथे और लम्बे साँचे में ढले हुए से मुख पर आँखें बर्फ में नीले जल के कुण्डों के समान लगती थीं। उनमें एक अनोखा विश्वास का भाव रहता था। गाय के नेत्रों में हिरन के नेत्रों जैसा चकित विस्मय न होकर एक आत्मीय विश्वास ही रहता है। उस पशु को मनुष्य से यातना ही नहीं, निर्मम मृत्यु तक प्राप्त होती है, परन्तु उसकी आँखों के विश्वास का स्थान न विस्मय ले पाता है, न आतंक |
महात्मा गांधी ने ‘गाय करुणा की कविता है’, क्यों कहा, यह उसकी आँखें देखकर ही समझ में आ सकता है।
गौरा की अलस मंथर गति से तुलना करने योग्य कम वस्तुएँ हैं। तीव्र गति में सौंदर्य है, परंतु वह मंथर गति के सौंदर्य को नहीं पाता । बाण की तीव्र गति क्षण भर के लिए दृष्टि में चका चौंध उत्पन्न कर सकती है, परंतु मन्द समीर से फूल का अपने वृत्त पर हौले-हौले हिलना दृष्टि का उत्सव है।
कुछ ही दिनों में वह सबसे इतनी हिलमिल गई कि अन्य पशु-पक्षी अपनी लघुता और उसकी विशालता का अन्तर भूल गए । कुत्ते-बिल्ली उसके पेट के नीचे और पैरों के बीच में खेलने लगे । पक्षी उसकी पीठ और माथे पर बैठकर उसके कान तथा आँखें खुजलाने लगे । वह भी स्थिर खड़ी रहकर और आँखें मुंदकर मानो उनके सम्पर्क-सुख की अनुभूति में खो जाती थी ।
हम सबको वह आवाज से नहीं, पैर की आहट से भी पहचानने लगी । समय का इतना अधिक बोध उसे हो गया था कि मोटर के फाटक में प्रवेश करते ही वह बाँ-बाँ की ध्वनि से हमें पुकारने लगती । चाय, नाश्ता तथा भोजन के समय से भी वह इतनी परिचित थी कि थोड़ी देर कुछ पाने की प्रतीक्षा करने के उपरान्त रंभा-रंभाकर घर सिर पर उठा लेती थी ।
उसका हमसे साहचर्यजनित लगाव, मानवीय स्नेह के समान ही निकटता चाहता था। निकट जाने पर वह सहलाने के लिए गर्दन बढ़ा देती, हाथ फेरने पर अपना मुख आश्वस्त भाव से कंधे पर रखकर आँखें मूँद लेती। जब उससे दूर जाने लगते, तब गर्दन घुमा-घुमाकर देखती रहती । आवश्यकता के लिए उसके पास एक ही ध्वनि थी, परन्तु उल्लास, दुःख, उदासीनता, आकुलता आदि की अनेक छाया-छबियाँ उसकी बड़ी और काली आँखों में तैरा करती थीं ।
एक वर्ष के उपरान्त गौरा एक पुष्ट सुन्दर वत्स की माता बनी । वत्स अपने लाल रंग के कारण गेरू का पुतला जैसा जान पड़ता था। उसके माथे पर पान के आकार का श्वेत तिलक और चारों पैरों में खुरों के ऊपर सफेद वलय ऐसे लगते थे, मानो गेरू की बनी वत्समूर्ति को चाँदी के आभूषणों से अलंकृत कर दिया गया हो। बछड़े का नाम रखा गया लालमणि, परन्तु उसे सब लालु के संबोधन से पुकारने लगे। माता-पुत्र दोनों निकट रहने पर हिमराशि और जलते अंगारे का स्मरण कराते थे। अब हमारे घर में मानो दुग्ध-महोत्सव आरम्भ हुआ। गौरा प्रात:-सांय बारह सेर के लगभग दूध देती थी, अतः लालमणि के लिए कई सेर छोड़ देने पर भी इतना अधिक शेष रहता था कि आस-पासके बालगोपाल से लेकर कुत्ते-बिल्ली तक सब पर मानो ‘दुधों नहाओ’ का आशीर्वाद फलित होने लगा। कुत्ते-बिल्लियों ने तो एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर दिया था। दुग्ध-दोहन के समय वे सब गौरा के सामने एक पंक्ति में बैठ जाते और महादेव उनके आगे उनके खाने के लिए निश्चित बर्तन रख देता। किसी विशेष आयोजन पर आमंत्रित अतिथियों के समान वे परम शिष्टता का परिचय देते हुए प्रतीक्षा करते रहते। फिर नाप-नापकर सबके पात्रों में दूध डाल दिया जाता, जिसे पीने के उपरांत वे एक बार फिर अपने-अपने स्वर में कृतज्ञता ज्ञापन सा करते हुए गौरा के चारों ओर उछलने-कूदने लगते। जब तक वे सब चले न जाते, गौरा प्रसन्न दृष्टि से उन्हें देखती रहती। जिस दिन उनके आने में विलम्ब होता, वह रंभा-रंभाकर मानो उन्हें पुकारने लगती ।
पर अब दुग्ध-दोहन की समस्या कोई स्थायी समाधान चाहती थी। नौकरी में नागरिक तो दुहना जानते ही नहीं थे और जो गाँव से आये थे, वे अनभ्यास के कारण यह कार्य इतना भूल चुके थे कि घण्टों लगा देते थे। गौरा के दूध देने के पूर्व जो ग्वाला हमारे यहाँ दूध देता था, जब उसने इस कार्य के लिए अपनी नियुक्ति के विषय में आग्रह किया, तब हमने अपनी समस्या का समाधान पा लिया।
दो-तीन मास के उपरान्त गौरा ने दाना-चारा खाना बहुत कम कर दिया और वह उत्तरोत्तर दुर्बंल और शिथिल रहने लगी । चिन्तित होकर मैंने पशु-चिकित्सकों को बुलाकर दिखाया। वे कई दिनों तक अनेक प्रकार के निरीक्षण, परीक्षण एक्सरे आदि द्वारा रोग का निदान खोजते रहे । अन्त में उन्होंने निर्णय दिया कि गाय को सुई खिला दी गई है, जो उसके रक्त-संचार के साथ हृदय तक पहुँच गई है। जब सुई गाय के हृदय के पार हो जायगी, तब रक्त-संचार रुकने से उसकी मृत्यु निश्चित है ।
मुझे कष्ट और आश्चर्य दोनों की अनुभूति हुई। सुई खिलाने का क्या तात्पर्य हो सकता है ? दाना-चारा तो हम स्वयं देखभाल कर देते हैं, परन्तु सम्भव है, उसी में सुई चली गई हो । पर डाक्टर के उत्तर से ज्ञात हुआ कि दाने-चारे के साथ गई सुई गाय के मुख में ही छिदकर रह जाती है गुड़ की बड़ी डली के भीतर रखी सुई ही गले के नीचे उतर जाती है और अंततः रक्त-संचार में मिलकर हृदय में पहुँच सकती है।
अन्त में एक ऐसा निर्मम सत्य उद्घाटित हुआ, जिसकी कल्पना भी मेरे लिए संभव नहीं थी । प्राय: कुछ ग्वाले ऐसे घरों में, जहाँ उनसे अधिक दूध लिया जाता है, गाय का आना सह नहीं पाते । अवसर मिलते ही वे गुड़ में लपेटकर सुई उसे खिला कर उसकी असमय मृत्यु निश्चित कर देते हैं। गाय के मर जाने पर उन घरों में वे पुनः दूध देने लगते हैं। सुई की बात ज्ञात होते ही ग्वाल एक प्रकार से अन्तर्धान हो गया, अतः सन्देह का विश्वास में बदल जाना स्वाभाविक था। वैसे उसकी उपस्थिति में भी किसी कानूनी कार्यवाही के लिए आवश्यक प्रमाण जुटाना असम्भव था ।
तब गौरा का मृत्यु से संघर्ष आरंभ हुआ, जिसकी स्मृति मात्र से आज भी मन सिहर उठता है । डाक्टरों ने कहा, गाय को सेब का रस पिलाया जावे, तो सुई पर कैल्शियम जम जाने और उसके न चुभने की सम्भावना है। अतः नित्य कई-कई सेर सेब का रस निकाला जाता और नली से गौरा को पिलाया जाता ।
शक्ति के लिए इंजेक्शन पर इंजेक्शन दिये जाते। पशुओं के इंजेक्शन के लिए सूजे के समान बहुत लम्बी मोटी सिरिन्ज तथा बड़ी बोतल भर दवा की आवश्यकता होती है। अतः वह इंजेक्शन भी अपने आप में ‘शल्यक्रिया’ जैसा यातनामय हो जाता था। पर गौरा अत्यन्त शान्ति से बाहर और भीतर दोनों ओर की चुभन और पीड़ा सहती थी। केवल कभी-कभी उसकी सुन्दर पर उदास आँखों के कोनों में पानी की दो बुंदे झलकने लगती थीं ।
अब वह उठ नहीं पाती थी, परन्तु मेरे पास पहुँचते ही उसकी आँखों में प्रसन्नता की छाया सी तैरने लगती थी। पास जाकर बैठने पर वह मेरे कंधे पर अपना मुख रख देती थी और अपनी खुरदरी जीभ से मेरी गर्दन चाटने लगती थी।
लालमणि बेचारे को तो माँ की व्याधि और आसन्न मृत्यु का बोध नहीं था । उसे दूसरी गाय का दूध पिलाया जाता था, जो उसे रुचता नहीं था। वह तो अपनी माँ का दूध पीना और उससे खेलना चाहता था, अतः अवसर मिलते ही वह गौरा के पास पहुँचकर या अपना सिर मार-मार, उसे उठाना चाहता था या खेलने के लिए उसके चारों ओर उछल-कूदकर परिक्रमा ही देता रहता ।
मैंने बहुत से जीव-जन्तु पाल रखे हैं, अतः उनमें से कुछ को समय-असमय बिदा देनी ही पड़ती है। परन्तु ऐसी मर्मव्यथा का मुझे स्मरण नहीं है ।
इतनी हृष्ट-पुष्ट, सुन्दर, दूध सी उज्ज्वल पयस्विनी गाय अपने इतने सुन्दर चंचल वत्स को छोड़कर किसी भी क्षण निर्जीब ओर निश्चेष्ट हो जायगी, यह सोचकर ही आँसू आ जाते थे ।
लखनऊ, कानपुर आदि नगरों से भी पशु-विशेषज्ञों को बुलाया, स्थानीय पशु-चिकित्सक तो दिन में-दो-तीन बार आते रहे, परन्तु किसी ने ऐसा उपचार नहीं बताया, जिससे आशा की कोई किरण मिलती। निरुपाय मृत्यु की प्रतीक्षा का मर्म वही जानता है, जिसे किसी असाध्य और मरणासन्न रोगी के पास बैठना पड़ता हो ।
जब गोरा की सुन्दर चमकीली आँखें निष्प्रभ हो चलीं और सेब का रस भी कंठ सें रुकने लगा, तब मैंने अन्त का अनुमान लगा लिया । अब मेरी एक ही इच्छा थी कि मैं उसके अंत समय उपस्थित रह सकूँ। दिन में हीं नहीं, रात में भी कई-कई बार उठकर मैं उसे देखने जाती रही ।
अन्त में एक दिन ब्राह्ममुहूर्त में चार बजे जब मैं गौरा को देखने गई, तब जैसे ही उसमे अपना मुख सदा के समान मेरे कंधे पर रखा, वैसे ही वह एकदम पत्थर जैसा भारी हो गया और मेरी बॉह पर से सरककर धरती पर आ गिरा। कदाचित् सुई ने हृदय को बेधकर बन्द कर दिया ।
अपने पालित जीव-जन्तुओं के पार्थिव अवशेष मैं गंगा को समर्पित करती रही हूँ। गोरांगिनी को ले जाते समय मानो करुणा का समुद्र उमड़ आया, परन्तु लालमणि इसे भी खेल समझ उछलता-कुदता रहा । यदि दीर्घ-निःश्वास का शब्दों में अनुवाद हो सके, तो उसकी प्रतिध्वनि कहेगी “आह मेरा गोपालक देश!’
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