संक्षिप्त परिचय: लेखक महोदय को उनके दोस्त एक मीटिंग में ले गए पर वहाँ उनका अनुभव उनकी आशा से बिलकुल परे था। ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने फिर कभी मीटिंग में ना जाने का निश्चय किया ? जानने के लिए पढ़िए ये कहानी जो एक व्यंग्य भी है।
यह नया युग है और नये युग में मीटिंगों का वही स्थान है जो तरकारी का भोजन के साथ होता है | समाज के अंजन में स्टीम तैयार करने के लिये मीटिंगों का होना आवश्यक है। और जब यह है तब मनुष्य जो समाज का एक अंग है मीटिंगों के ही भरोसे सजीव रह सकता है। ऐसा उन लोगों का कहना है जिनके जीवन का सात बटे आठ भाग मीटिंग बुलाने, मीटिंग करने तथा मीटिंगों में ही लगा रहता है ।
मुझे यह बातें कभी समझ में नहीं आयी । सभाओं में जाने में मुझे उतना ही आलस्य लगता है जितना पूस के महीने में सबेरे उठने में | सभा समाजों में जाने का अभ्यास नहीं था किन्तु एक बार मुझे एक मीटिंग में जाना पड़ा | तब से मैंने समझा कि मीटिंगों में सम्मिलित होना साधारण कलेजे का काम नहीं है। एक रविवार को तीन बजे दिन के लगभग एक घनिष्ट मित्र मेरे घर पहुँचे। जाड़ा आरम्म हो चुका था। यद्यपि उसका प्रभाव होमियोपैथिक ही पड़ा था | मैं चाय पीने की तैयारी कर रहा था ।
चीनी की कठिनाई होने पर भी किसी मित्र के आने पर उसे भी चाय पिलानी पड़ती है जैसे सुन्दरता न होने पर भी अवस्था ढल जाने पर पाउडर और लिपस्टिक लगानी पड़ती है। उन्होंने पूछा आज आप मीटिंग में नहीं जायेंगे क्या । विश्वविख्यात नेता आ रहे हैं, जनता टूट पड़ रही है ।
मैंने कहाँ मुझे तो पता नहीं। उन्होंने उपाल्म्भ में अपनी वाणी खोलकर कहा इससे देश की उन्नति नहीं हो रही है। जब पढ़े-लिखे लोग इस प्रकार उपेक्षा करेंगे तब साधारण जनता से क्या आशा की जा सकती है| मैं बोला मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ । मेरे ससुर के सबसे छोटे पुत्र आये हैं। उन्हीं के आतिथ्य में रह गया। पत्र आज पढ़ा नहीं | मित्रवर बोले, किन्तु तुम्हें चलना चाहिये। सार्वजनिक कार्य निजी कार्य से अधिक महत्व के होते हैं। देखिये हमारे नेताओं ने घर-द्वार छोड़ दिया है। कृष्ण तो राधा को भी छोड़ कर जनता के कार्य के लिये चले गये | उन्होंने इसी प्रकार अनेक तर्क उपस्थित किये और अंत में उन्होंने कहा पाँच बजे से सभा है | इतने महान व्यक्ति आ रहे हैं। अभी से लोग जा रहे हैं हम लोगों को भी एक घंटा पहले चलना चाहिये जिसमें अच्छी जगह मिल जाय | फिर उन्होंने आने वाले महोदय के भाषण की प्रशंसा की । कहा जब बोलते हैं जान पड़ता है कि बर्क की आत्मा प्रवेश कर गयी है। शब्द इस प्रकार मुख से निकलते हैं जैसे गंगोतरी से गंगाजी निकलती हैं। एक एक शब्द हृदय में ऐसे घर कर जाता है जैसे मिठाई के भीतर चीटा पैठ जाता है। मैंने श्रीमतीजी से कहा मैं सभा में जा रहा हूँ | नगर के सभी भले आदमी जा रहे हैं। सुना है ऐसा भाषण केवल एक बार यहाँ हुआ था जब राम लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे थे। उन्होंने कहा ऐसी अवस्था में मैं भी चलूँगी। किन्तु उन्हें मैंने स्मरण दिलाया अतिथि जो आये हैं उनके भोजन की व्यवस्था कैसे होगी | तब वह मान गयीं । बोली जल्दी आना । आठ बजे तक लौट आना । मैंने कहा वहाँ मुझे चौकीदारी नहीं करनी है। कुछ ज्ञान की वृद्धि होगी सत्य, प्रेम देशहितैषिताकी बातें सुनूँगा । आत्मा का परिष्कार होगा । उन्होंने कहा ठीक है। लौटते समय एक पाव पापड़ लेते आना, पापड़ नहीं है ।
मैं और मेरे मित्र चले । राहभर इस बात पर दुख हो रहा था कि मेरे पास मीटिंग वाले कपड़े नहीं थे । सभा के मैदान में पहुँचा। भीड़ एकत्र हो रही थी। एक मेला सा लग रहा था। रविवार का दिन ही था | सब दुकानें बंद थीं। सब लोग उसी ओर चले जा रहे थे । अचकन पाजामा पहने, टोफ़ीवाले, नंगे सिरवाले, मूँछ दाढ़ी वाले बिना मूँछ वाले, ओर कुछ सूट पहने लोग भी एकत्र हो रहे थे। महिलाएँ भी थीं। घूँघट वाली और बिना घूँघट वाली, कुछ की गोद में बच्चे थे जो अपना अस्तित्व स्पष्ट करने के लिये बीच-बीच बिगड़े वायलिन की भाँति स्वर का अभ्यास करते थे। महिलाएँ मंच के पास बैठायी जा रही थीं। ऊँचा सा मंच था उसके पास सब लोग पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। मैं बाहर ही से भाषण सुनना चाहता था। उस भीड़ में बैठना उस सरदी में भी भाड़ में बैठने के समान था । दूसरे इच्छा थी कि बाहर रहने से जब इच्छा होगी चला चलूँगा। ऐसी भीड़ में यदि लगातार एक महीने बैठने की सुविधा हो तो योग और तप के बिना ही माया का बन्धन कट जाय । किन्तु मेरे मित्र अखाड़िये मीटिंगबाज थे । उन्होंने कहा लाउडस्पीकर होने से भाषण तो सुनाई देगा किन्तु किसी सभा में वक्ता के निकट ही बैठना चाहिये । उसकी आँखों का उतार-चढ़ाव, उसकी गर्दन का तनाव, उसकी पुतलियों का नर्तन, उसके अधरों की ऐंठन, उसके माथे की सिकुड़न हम अच्छी तरह देख सकेंगे । और तभी उसकी मार्मिक भावनाओं को समझकर हृदयंगम कर सकेंगे । पता चल सकेगा कि हृदय की कितनी गहराई से वह बोल रहा है । एक टेकनीक और उन्होंने श्रोताओं के लिये बतलायी | श्रोता यदि वक्ता के मुँह की ओर सदा देखा करे तो कितना भी गहरा भाषण हो समझ में आ जाता है। ऐसे विशेषज्ञ की आज्ञा कैसे न मानता, मैं श्रोता बनकर गया था। धीरे-धीरे राह बनाते हम लोग बिल्कुल मंच के पास पहुँच गये | भीड़ अब तक बढ़ गयी थी ।
हम लोग साढ़े चार बजे पहुँच गये थे। आध घण्टे किसी प्रकार कटे | लोगों की बातें सुन रहा था। पाँच बजे पता चला कि पाँच बजे का समय तो जनता के लिये बताया गया है। वक्ता महोदय को साढ़े पाँच बजे का समय दिया गया है। जिस में उन्हें जोहना न पड़े, ठीक समय से कार्य आरम्म हो जाय। में यह तो जानता था कि घड़ियों में ग्रिनिच का समय एक होता है मासको का दूसरा और न्यूयार्क का तीसरा । यहाँ पर एक और जानकारी नयी हुई कि मीटिंगों में श्रेता का समय और होता है और वक्ता का और । होना भी चाहिये | यदि श्रोता और वक्ता एक ही धरातल पर रहें तो दोनों में अन्तर ही क्या । साढ़े पाँच बजा | घड़ी में देखा सोचा कि वक्ता महोदय आते होंगे। मैं ही नहीं दूसरे भी सिर उठाकर देखते रहे । जब किसी कार का भोंपा बोलता तब समझा जाता आज के अतिथि पधारे । किन्तु उनका पता नहीं। सवा पाँच बजा | पन्द्रह मिनट तक बाट जोहना साधारण शिष्टता की बात है। मृत्यु के सिवाय और सभी इतनी इन्तजारी कम से कम कर ही लेते हैं।
जब सवा पाँच से सुई आगे बढ़ी तब लोगों में कुछ अधीरता दिखायी पड़ी । अनेक व्यक्ति मंच पर आकर माइक से कुछ न कुछ कह जाते थे । यह निश्चय न होता था कि कौन सचमुच अधिकारी है। पूछने पर कोई अपने को मंत्री बताता कोई उप मंत्री कोई सहायक मंत्री कोई प्रबन्ध मंत्री । मंत्रियों का भी एक मेला सा लगा था। अब धीरे-धीरे छ बजने में पाँच-छः मिनट रह गये थे। जिस समय सभा समाप्त होनी चाहिये थी अभी आरम्म भी नहीं हुई थी। अनेक प्रकार की बातें लोग कहते किन्तु ठीक पता न चलता कि क्यों नहीं आ रहे हैं। साढ़े छ बजे पता चला कि चल चुके हैं, अब आते ही हैं । कुछ जान में जान आयी | प्यास के मारे हाल विचित्र था। इधर उधर देखा ! कहीं कोई ऐसा दिखायी न पड़ा जो एक चिल्लू भी पानी की सहायता करता | काशी में रहते हुए जान पड़ा अरब में बैठा हूँ | पान वाले जहाँ थे वहाँ तक पहुँचना मेरे लिये एवरेस्ट तक पहुँचना था। सूख रहा था, कहने पर मित्र महोदय बोले महान व्यक्तियों का साक्षात्कार करना साधारण ढंग से नहीं होता । यह परीक्षा होती कि सचमुच आप में श्रद्धा-भक्ति है कि नहीं | परीक्षा अच्छे ढंग से होती रही । सात बज गये अभी वक्ता महोदय का पता न था। जो लोग घर से बुद्धि अपने साथ लाये थे लौट गये किन्तु ऐसे लोगों की संख्या कम थी। जब सात बज गये मैंने अपने मित्र से कहा संसार में अनेक वस्तुएँ मेरे लिये अलम्य हैं। आज के व्याख्यान को भी मैं उसी श्रेणी में रखना चाहता हूँ। यह मेरा दुर्भाग्य है इसलिये मुझे क्षमा कीजिये | मैं अब जाना चाहता हूँ । घर पर अतिथि अलग कोस रहे होंगे। मैं आधा खड़ा था कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर बैठा दिया । बोले जब इतनी देर तक बैठे रहे बेकार तो थोड़ी देर और न ठहरना मूर्खता होगी, अब तो आते ही होंगे। जब कहा है तो आएँगे ही, इतने बड़े नेता हैं झूठ तो बोलेंगे नहीं। कोई न कोई बात होगी | इन लोगों को इतना कार्य रहता है कि साँस लेने का भी अवकाश नहीं मिलता । यह तो हम लोगों का सौभाग्य है कि यहाँ आ गये । लड़ाई मैंने केवल इतिहास की पुस्तकों में पढ़ी है। वैयक्तिक या सामूहिक रूप से कभी ऐसे कार्य में सम्मिलित नहीं हुआ हूँ । इसलिये उनसे लड़ नहीं सकता था।
सवा सात बजे एक बार पुनः सुनने में आया कि वक्ता महोदय आ रहे हैं। विल्म्ब होने का कारण किसी ने बताया कि कार बिगड़ गयी किसी ने कहा नेता महोदय सारनाथ का मन्दिर देखने चले गये हैं| किसी ने कहा कुछ अपच हो गया है। आठ बजने में तीन मिनट रहे तब बड़ा कोलहाल हुआ । पता चला पूजनीय वक्ता महोदय के चरण कमल व्याख्यान सरोवर में खिले | कुछ लोग जो बैठे थे खड़े हो गये, कुछ लोगों ने हिलना-डोलना आरम्म किया। कार से उतरते ही बहुत से लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनके चारों ओर हाथ बांध कर उन्हें मंच की ओर लाने लगे। मानो वह कोई अबला हों ओर उनकी रक्षा के लिये इतने लोग साहस दिखा रहे हैं | लोग चिल्लाने भी लगे । कुछ लोगों के फेफड़े की कसरत भी हो गयी । इस प्रकार की सभाएँ यदि होती रहें और सबको जयजयकार बोलने का इस प्रकार अवसर मिलता रहे तो टीबी के रोग में कुछ कमी हो जाय | जिस समय वक्ता महोदय मंच पर चढ़ रहे थे भीड़ में आन्दोलन सा आरम्म हुआ। जिस प्रकार पूर्ण चाँद को देखकर समुद्र उसकी ओर उमड़ता है वक्ता महोदय को देखकर भीड़ उनकी ओर उमड़ी । यद्यपि उनके मुख में चन्द्रमा वाला अंश कम ओर घब्बे वाला अंश अधिक था। यह सुअवसर देख अधिक प्रेमी लोग मंच की ओर बढ़े, कुछ इधर से उधर हो गये। अवसर अच्छा था। मैंने सोचा इसी गति में मैं भी सहयोग प्रदान करूँ और निकल भागूँ। किन्तु मित्र महोदय ने मेरा हाथ इस प्रकार पकड़ रखा था जैसे किसी नदी के किनारे पाँव को केकड़ा पकड़ लेता है। मन में मित्र महोदय के प्रति दो चार प्रांजल शब्दों का प्रयोग करके बैठ गया |
नेता महोदय को लोगों ने माला पहनायी, बंदेमातरम का गान हुआ तब एक महोदय ने उनका स्वागत आरंभ किया, स्वागतभाषण मेरी समझ में इतना ही आया कि यदि उनकी प्रतियाँ विद्यार्थियों में बाँट दी जाय तो व्याकरण की अशुद्धियों को शुद्ध करने के लिये अच्छा अभ्यास हो सकता है, और आप इतनी देर तक बोले मानो आप ही प्रमुख वक्ता थे, इतनी देर हो गयी कि मेरी सहिष्णुता का पेड़ जिसमें देर से घबराहट का घुन लग रहा था एकाएक गिर पड़ा। ज़्योंही स्वागत भाषण समाप्त हुआ मै जाने के लिये उठ खड़ा हुआ | चारों ओर से आवाज आने लगी बैठिये-बैठिये किसी ने कहा, असभ्य आदमी है, किसी ने कहा पढ़ा लिखा तो जान पड़ता है, किसी ने कहा गद्दार है। जिस भाँति पेट में भोजन समाने की सीमा होती है उसी प्रकार गाली सुनने की भी सीमा होती है, और मैं असीम की ओर जाना नहीं चाहता था। घूस लिये हुए चुनाव के उम्मीदवार की भाँति बैठ गया । पौने नव बजे हमारे प्रमुख वक्ता महोदय बोलने के लिये खड़े हुए । तालियों की गड़गड़ाहट हुई, अनेक महापुरुषों को जिन्दाबाद कहा गया । यद्यपि वह सब जीवित थे | आरंभ में उन्होंने विलंब के लिये क्षमा माँगी। बोले मेरे फूफा के साढ़ू के लड़के का मुंडन था उसी में लोग पकड़ ले गये, इसी से देर हो गयी। नहीं तो मैं समय का बहुत ध्यान रखता हूँ, और दो घड़ियां सदा अपने पास रखता हूँ कि एक बंद भी हो जाय तो भी ठीक समय पर पहुँच सकूँ। इसके पश्चात् भाषण हुआ। दस बजे तक वह बोलते रहे । जितनी ही देर होती और जीभ मुँह के भीतर रगड़ खाती शान पर चढ़ती जाती थी। भाषण का सारांश यह है कि उन्हें छोड़ सब देश द्रोही हैं। देश की चिंता किसी को नहीं है। देश की सारी दुर्दशा के कारण हम हैं ।
मैं पहली बार जान गया कि हमसे अयोग्य, निकम्मा, अनाचारी, झूठा और देश को रसातल की ओर ले जाने वाला कोई नहीं है। जनता में कोई हयादार नहीं था नहीं तो भाषण के आधे घंटे के बाद सबका शव गंगा के वक्षस्थल पर तैरता दिखायी देता। में भी उन्हीं लज्जाहीन मनुष्यों में था कि इतनी बात सुनकर अपने को जीवित रख कर इस धरती को मन डेढ़ मन के बोझ से दबाये रहा ।
घर लौटा वक्ता महोदय की बुद्धि की प्रशंसा करता और अपने मित्र को आशीर्वाद देता। इतनी रात को पापड़ भी न मिला । अपने नेता की कुनैन सी बातें सुनने के बाद घर पर के नैन देखने का साहस न रहा । उस दिन पता चला कि महात्माजी मौन रहने की जो शिक्षा सबको देते थे उसमें कितना महत्व था मैं चुप रहा | न मैंने किसी बात का उत्तर दिया न कुछ बोला | तबसे मैंने प्रण किया कि किसी मीटिंग में इस जन्म में न जाऊँगा | अगले में न जाने के लिये परमात्मा से निवेदन करूँगा ।
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