अफवाह | Afwaah

बेढब बनारसी जी का लिखा हुआ एक व्यंग्य| A satire written by Bedhab Banarasi

अफवाह, एक व्यंग्य | a satire on rumours and people who spread them

संक्षिप्त परिचय: अफवाह – बेढब बनारसी द्वारा लिखा गया एक व्यंग्य है । ये उन लोगों की मानसिकता पर कटाक्ष है जो कुछ लोगों के बारे में बिना किसी प्रमाण के कोई भी अफवाह फैला देते हैं और उससे खुश भी होते हैं । ये विषय पहले भी उतना ही प्रासंगिक था जितना कि आज है।

मनुष्य का जीवन आनन्द के लिए है क्योंकि भगवान ने मनुष्य को बनाया है और भगवान का नाम सच्चिदानन्द है। जीवन में यों तो आनन्द अनेक हैं जैसे घूस लेने के ढंग अनेक हैं किन्तु तीन आनन्द से बढ़कर कोई नहीं मिला है अभी तक ! यह लिखकर मैं विज्ञान की शक्ति की अवद्हेलना नहीं कर रहा हूँ । विज्ञान में अद्भुत शक्ति है। जिस विज्ञान द्वारा हरी-हरी घास से उजला घी बन सकता है, जिस विज्ञान की सहायता से डाका और चोरी की कठिनाइयाँ दूर हो गयी हैं उसे मैं चुनौती नहीं दे रहा हूँ। सम्भव है कोई नये प्रकार का आनन्द कल निकल आये। किन्तु मैं आज की बात कर रहा हूँ । पहला आनन्द तो ब्रह्मका साक्षात्कार है। जो कम लोगों के भाग्य में होता है। सुनता हूँ आज से सहस्त्रों वर्ष पहले भारत में उन लोगों को यह आनन्द प्राप्त हो जाता था जो महीनों बिना भोजन किये और बिना जल ग्रहण किये नख और जटा बढ़ाकर हिमालय की किसी चोटी पर बैठ जाते थे। आजकल भोजन बिना लाखों प्राणी उसी प्रकार जीवन का आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा आनन्द रसों का है। साहित्य के रस का आनन्द ब्रह्मानन्द सहोदर है। इसका भी अब अभाव है। जब मानव शोषित हो गया तब उसमें रस कहांसे आ सकता है।

किन्तु तीसरा आनन्द आजकल सभी को प्राप्य हैं। सरल है। उपदेश की भाँति बिना मूल्य मिलता है। यह आनन्द उस समय आता है जब हम दो-चार मनुष्य बैठकर दूसरों की निन्‍दा करने लगते हैं। कामघेनु के दूध से बनी हुई मलाई में, अथवा नल के हाथ की बनी हुई कढ़ी में अथवा भीम के हाथ से बनी खिचड़ी में, नूरजहाँ के कोमल कर से बने पुलाव में वह रस नहीं मिल सकता जो दूसरों के सम्बन्ध में उसके परोक्ष में बैठकर बात करने में आता है|

सन्ध्या का समय है, चाहे मलयागिरि का सुगन्धि से सना समीर बहता हो अथवा राजपूताने से चली वियोगिनी क्षत्राणियों की उसासों से सन्तप्त शरीर को झुलसाने वाला पवन बहता हो, चार-छ आदमी बैठ जाते हैं । अमावस चन्द के चरित्र की चर्चा होने लगती है। अमावस चन्द निहायत निकम्मे आदमी हैं। जिन लोगों ने उनकी परछाहीं नहीं देखी, उन्होंने उन्हें घूस लेते देखा है। जो लोग उन्हें उतना ही जानते हैं जितना अर्जुन इब्राहीम लोदी को जानते थे उन्होंने उन्हें चोरी-चोरी जानीवाकर के गिलास समाप्त करते देखा है ।

चर्चा अमावस चन्दतक ही नहीं रह जाती | यदि उन्हीं तक समाप्त हो जाय तो बैठक सोखते के समान नीरस हो जाती है। उस सीमा तक लोग पहुँच जाय जिसके आगे राह नहीं है। अमावस चन्द से ढोलकप्रसाद, ढोलकप्रसाद से लोटनराम और इसी प्रकार जितने परिचित लोग हैं सबके बारे में लोग चर्चा चलाते हैं। प्रशंसा भी होती है। किन्तु निंदा के परिमाण में प्रशंसा की मात्रा उतनी ही रहती है जितनी बघार में हींग । और सच पूछिये तो प्रशंसा में आनन्द नहीं आता । दर्द में जो मजा है वह शांति में कहाँ। ऐसा न होता तो शंकर गरल क्यों पीते | किसीकी निंदा करने में जो अलौकिक सुख मिलता है उसे सहस-सारदा-सेस भी नहीं कह सकते ।

अपने मिन्रों के सम्बन्ध में तो कुछ हम जानते भी हैं। हमें अधिकार है कहने का। उसके पिता के सम्बन्ध में कहने का, उनकी स्त्री के विषय में बतियाने का, उसकी लड़की पर टीका-टिप्पणी करने का । किन्तु यह निन्‍दा सीमित रहती है। आनन्द सदा असीम में मिलता है। असीम आकाश जब हम देखते हैं कल्पना को भी डैने लग जाते हैं, असीम में आकर्षण है इसीलिए उसी ओर सब झुकते हैं। इसलिए उन लोगों के सम्बन्ध में, जिन्हें हम नहीं जानते और जिनकी संख्या अपरिमित है, इमें आलोचना करने में विचित्र मिठास मिलती है। उनके सम्बन्ध में जब दृढ़ता से हम कहते हैं कि उनका चरित्र पतित है तब यदि कोई विरोध करता है तो हम सहन नहीं कर सकते | यद्यपि हमने उनका चित्र देखा है, केवल अखबार में, फिर भी हमें ऐसी दृष्टि मिली रहती है कि हम उनकी राजनीति, उनका आचरण उनकी आय सब अच्छी तरह जानते हैं ।

स्त्रियाँ तो देश की गौरव हैं। उनके सम्बन्ध में सभी को चिन्ता और चेतना होना आवश्यक है। उनसे तथा उनके घरवालों से अधिक परवाह हमें उनके लिए हो जाती है| उनके प्रति हम इतने जागरूक हो जाते हैं कि उनकी चाल-ढाल, वेशभूषा, बनाव-सिंगार पर ‘पैनी’ आलोचना करना अपना जन्मसिद्ध, धर्मसिद्ध और युगसिद्ध अधिकार समझते हैं। उनकी साड़ी के रंग में और माँग की बनावट में हम उसी प्रकार अर्थ निकालते हैं जिस प्रकार पुरातत्व के पारखी किसी पुराने खंडहर के प्रत्येक ठीकरे में देश के इतिहास की एक-एक दिन की घटना अंकित देखते हैं। अन्तर केवल इतना होता है कि यदि किसी ईंट को देख कर पुरातत्व का विद्वान कहता है कि इसकी रेखाओं में कनिष्क का चरण झलकता है और दूसरा कहता है नहीं, यह हुविष्क का है तो सत्य चाहे जो हो, दोनो से ईंट का गौरव ही बढ़ता है। किन्तु जब हम किसी महिला के रूमाल को आलोचना की कसौटी पर कसते हैं अथवा उसकी चूड़ियो पर कला पारखी बनकर अपनी ‘एक्सपर्ट’ राय देकर मल्लिनाथ की भाँति अर्थगौरव की अभिव्यक्ति करते हैं तब उस महिला के चरित्र से हम उसी भांति खेलते हैं जिस प्रकार चूहे से बिल्ली खेलती है।

और जो विचार का धागा हमारी कल्पना के मिल से निकलता है उसे यदि दूसरे भी प्रदर्शित करने लगते हैं तब तो हमें वैसी ही प्रसन्नता होती है जैसी मेघनाद को लक्ष्मण के बेहोश होने पर हुई होगी।

दूसरों के सम्बन्ध में काल्पनिक असत्य बातों के प्रचार करने में इस प्रकार जो आनन्द आता है वह मीठा भी है, मादक भी है और मनोरंजक भी है। बहुतों का यह मानसिक भोजन है जिससे शरीर पर बहुत स्वस्थ प्रभाव पड़ता है। बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों से लेकर कालेज और स्कूल के विद्यार्थियों तक यह इसी प्रकार प्रसारित है जैसे क्षय के कीटाणु हमारे देश में । दोनों ही बन्दनीय और अभिनन्दनीय हैं |

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