संक्षिप्त परिचय: पैसों का पेड़, तुलसी पिल्लई जी की लिखी हुई कहानी है। इस हिंदी कहानी में लेखिका अपने बचपन की याद करते हुए एक दिलचस्प क़िस्सा साझा कर रही हैं जो एक पैसों के पेड़ से सम्बंधित है। यह कहानी पाँच भागों में लिखी गयी है और यह भाग इस कहानी का पाँचवा और आख़िरी भाग है। अगर आपने इसके पहले भाग नहीं पढ़े हैं तो उन्हें पढ़िए यहाँ : पहला भाग , दूसरा भाग , तीसरा भाग और चौथा भाग ।
मैंने आगे पैदमा से कहा:-“अप्पा ने कहा तुम रोज-रोज उनके बटुए से पैसे चुरा लेती हो। तुम एक नंबर की चोर हो।”
पैदमा बोली :- “ऐसा कहा मेरे बारे में ?”
(पैदमा ने एक डंडा उठाया और मेरा हाथ पकड़ अप्पा के पास चली।)
पैदमा बोली :- “क्यों जी, क्या कहा मेरे बारे में? मैं चोर हूँ ?” (यह सुनते ही अप्पा की बोलती बंद हो गई।)
अप्पा बोले :- “मैंने ऐसा कहा ही नहीं।”
मैंने कहा :- “पैदमा, अप्पा झूठ बोल रहे हैं, इन्होंने ऐसा बोला था।”
पैदमा बोली :- “हाँ मुझे पता है, इस आदमी की रग-रग से वाकिफ हूँ , चोर तो यह खुद हैं और मैं क्यों इनके पैसे चुराऊं? इस भिखारी के बटुए में पैसे होंगे, तो मैं चोरी करूँ ? पहले तो मैं इनसे ज्यादा करोड़पति हूँ। मेरे पास नोट ही नोट हैं। इनके एक-एक रुपए के चिल्लर क्यो चुराऊँ ?”
अप्पा मेरी नजर में तो करोड़पति ही थे। वे कभी भी हम सब भाई–बहिनों को पैसे देने में आनाकानी नहीं करते थे। मुझे लगा कि पैदमा ये बात जानती नहीं हैं कि अप्पा का बटुआ पैसों से भरा रहता है। यहाँ तक कि अप्पा के पास पैसों का पेड़ भी है। बस वो बता नहीं रहे, यह अलग बात है।
अरे! पैदमा तो बस इतना कहकर हँसती हुई, डंडे को एक तरफ पटककर अपने काम में उलझ बैठीं। मैं हताश हो गई। अप्पा को मार नहीं पड़ी। अप्पा मुझे छेड़ने लगे, मुझे मार नहीं पड़ी। अब तुझे कभी भी पैसों का पेड़ नहीं बताऊंगा। मुझ पर हंस रहे थे और मुझे गुस्सा आने लगा।
मैंने पैदमा का रास्ता पकड़ा और पैदमा से बोली:-” पैदमा देखो, तुमने कहा था कि तुम अप्पा को मारोगी। तुमने मारा क्यों नहीं ? अब देखना, मैं कुछ भी नहीं बताऊँगी | अप्पा तुम्हारे बारे में कुछ भी कहें, वह भी नहीं, तुम्हारी वजह से अप्पा मुझ पर हँस रहे हैं।”
पैदमा हँसते हुए बोली :- “तुझ पर हँस रहे हैं क्या ? रुक, अभी आती हूँ। थोड़ा काम कर लूँ। जा अप्पा को बोल दे कि ज्यादा हँसे नहीं, बाद में रोना पड़ सकता है।पैदमा आ रही हैं।”
मैं खुशी–खुशी दौड़ी अप्पा के पास और कहा, “अप्पा पैदमा आ रहीं हैं।” (एक संगीत की लय में )
पैदमा आई और बोली :- “अब छोड़ो बच्चों के साथ खेलना, होटल नहीं जाना क्या ? वरना अब तो पक्का मारना पड़ेगा।”
पैदमा ने अप्पा को चेतावनी दी और अप्पा होटल के लिए तैयार होने लगे। मन निराश हो गया। कितना मजा आता। अगर अप्पा को मार पड़ती। लेकिन अफसोस…
अप्पा शाम को जब होटल से लौटे। मैं तो गुस्सा भूल चुकी थी ।अप्पा के आते हीं गोद में चढ़ गई।अप्पा ने मुझे गोद से उतार दिया। यह कहकर मैं तुझसे कट्टी हूं। पैदमा से मुझे मार पड़वाएगी न? अब मुझे भी मेरा सुबह का गुस्सा याद आ गया।
मैंने कहा :- “मैं तुमसे कट्टी हूँ समझे।”
अप्पा मुझसे बात नहीं कर रहे थे। मुझे बुरा लग रहा था। मुझे जलाने के लिए मेरे भाई–बहन को अपनी गोद में बैठा लिया। मुझे भी ईर्ष्या हो रही थी, क्योंकि कभी भी मैंने अपने भाई–बहन को मेरी उपस्थिति में अप्पा की गोद में बैठने नहीं दिया। अगर कभी बैठ भी जाते तो लगता धक्का मारकर गिरा दूँ।
कई बार जब मैं ईर्ष्यावश अपने भाई-बहनो को अप्पा के गोद में बैठने नहीं देती थी तो मीना दीदी मेरे भाई-बहनों का समर्थन करते हुए अप्पा से कहती कि तुम सब बच्चों के साथ अन्याय क्यों करते हो? सब बच्चों से समानता से प्रेम करो। तुलसी ही कोई विशेष नहीं है।” और अप्पा के बाद मुझसे कहती:- “अप्पा केवल तुम्हारे ही नहीं है। अप्पा सब के है।”
मैं कहती:- ” अप्पा मेरे हैं, और किसी के नहीं।” मेरे इतना कहते हैं ही हम भाई-बहनों में लड़ाई छिड़ जाती थी। अन्ततः अप्पा से ही पूछ लिया जाता था कि तुम किसके अप्पा हो? सोनू के? तुलसी के? दलों के? भूमा के?”
इस प्रश्न से अप्पा को दुविधा घेर लेती कि आखिर किसका समर्थन करूं? हम सभी को एक बार अप्पा स्नेहपूर्वक देखकर अप्पा बोलते कि “मैं सबका अप्पा हूं। मैं किसी का पक्षपाती नहीं हूं। तुम सभी मेरे लिए बराबर हो।”
इस समय मैं खुद को बहुत असहाय महसूस करती थी और अपने भाई- बहिनों के समक्ष खुद को पराजित। क्योंकि मेरी तो यही इच्छा होती थी कि अप्पा के मुख से बस यही निकले कि मैं केवल तुलसी का अप्पा हूं। लेकिन हां,यह बात भी मैं अच्छे से जानती थी कि मेरे अप्पा का स्नेह तो सभी के लिए ही है। जैसे बादल पक्षपाती नहीं हो सकते हैं। यदि बरसेंगे तो पूरे इलाके में ही और अप्पा के स्नेह की बारिश से कौन अछूता रह सकता है?
ख़ैर! अप्पा मेरे भूमा–दलों को प्यार कर रहे थे और मुझे देखकर मुंह मोड़ रहे थे | फिर मैं भी मुंह मोड़ ली।पंद्रह-बीस मिनट तक यही चलता रहा, फिर मुझे लगने लगा कहीं मैं अपने अहम के कारण अप्पा को खो न दूँ, मैंने पहल की कि अप्पा अपन दोनों अब्बा हो जाते हैं।
अप्पा बोले :-“तू मुझे मार पिटाएगी न, पैदमा से ?”
मैं बोली :- “नहीं पिटवाऊँगी।”
अप्पा मुसकुराते हुए बोले :- “मेरी बात पैदमा को बताई ?”
मैंने कहा:- “तुमने भी तो मुझे पैसों का पेड़ नहीं बताया।”
अप्पा बोले :- “कहा था न, बता दूंगा।”
मैंने कहा :- “कब बताओगे? इतने दिन तो हो गए?”
फिर अप्पा ने दलों और भूमा को गोद से उतरने को बोला और मुझे गोद में लिया। मेरा मन रूआँसा हो गया।मगर रोई नहीं। अप्पा मुझे अपनी बाहों में भर कर बोले:-“बेटा, चुगली करना अच्छी बात नहीं होती।”
मैंने मासूमियत से कहा :- “मैंने चुगली कहाँ की ?”
अप्पा बोले :- “बेटा, किसी दूसरे की बात, किसी तीसरे को बताना चुगली कहलाती हैं।”
मैंने कहा :- “अब नहीं करूंगी, तो पैसों का पेड़ बताओगे ?”
अप्पा ने कहा :- “हाँ बता दूंगा।”
मैंने निश्चय किया, चुगली नहीं करूंगी | लेकिन यह निश्चय नाम मात्र का ही रहा | अप्पा की बहुत बार पैदमा से चुगली की। और आज तक चुगलीखोर हूँ |
मेरे प्रिय पाठकों, मेरा यह संस्मरण अपने अन्तिम चरण में पहुंच चुका है।पूरे संस्मरण में आप सभी को मैंने अपने अप्पा की तरह ही पैसों के पेड़ में उलझा कर रखा। चलो, आज इस भेद को खोल ही देती हूं।अप्पा के पैसों का पेड़ कभी सामने नहीं आया।आप सभी भलिभांति जानते ही होंगे? भला इस दुनिया में पैसों का पेड़ होता भी है कहीं? मैंने तो आज तक नहीं देखा।
एक दिन मेरी माँ आँगन में लगे पेड़ की जडो को पोषण देने के लिए ज़मीन को खोदकर उपजाऊ बना रही थी | अचानक मेरी मम्मी को एक छोटा सा जंग लगा कुछ गोल-गोल मिला |
उन्होंने हम सब को बताते हुए पूछा :- “यह क्या है?”
मैंने अपने हाथ में लेकर देखा। तो वह एक रुपये का सिक्का था। मुझे बात समझने में देर नहीं लगी। अप्पा के पैसों वाला पेड़ का किस्सा स्मरण हो आया।लेकिन मैंने तो पचास पैसों का सिक्का बोया था। लेकिन यह एक रुपए का सिक्का शायद मैं गलत हूँ।मैंने दलों को सिक्का बताया।दलों को भी ज्यादा सोचना नहीं पड़ा।वह बोली अप्पा वाला हैं। अपने बचपन में पैसों वाले पेड़ नहीं उगाए थे। वही सिक्का है।
मैंने कहा :- “लेकिन वो पचास पैसे के सिक्के थे न ? यह एक रुपए का है। जहां तक मुझे याद है।मैंने एक रुपया कभी नहीं बोया था।”
दलों हँसते हुए बोली :- “यह एक रुपया मैंने बोया था।”
मैंने कहा :- “मैंने तो कुछ दिन बाद पेड़ उगाना बंद कर दिया था। लेकिन तूने उसके बाद भी जारी रखा था ?”
दलों बोली :- “हाँ, अप्पा ने कहा मैंने एक रुपए का पेड़ भी उगाया, तो मैंने भी एक रुपए का पेड़ भी उगा दिया।”
हम दोनों खूब हंसी और फिर से बचपन की ओर चल दिए ।मैंने सोचा था कि अप्पा ने सबसे ज्यादा मूर्ख मुझे ही बनाया हैं। लेकिन मैं गलत थी | मुझसे कहीं अधिक मूर्ख दलों बनी थी। मेरे अप्पा ने कभी हार स्वीकार नहीं की थी, उनका विश्वास से कहना कि मेरे पास पैसों का पेड़ है। जब कोई इतना आत्मविश्वास से कहे तो मानना ही पड़ेगा | चाहे अविश्वास ही क्यों न हो? मैं बस इतना जानती हूं कि इस दुनिया में न सही। लेकिन बालमन की काल्पनिक दुनिया में तो था ही अप्पा का पैसों का पेड़, जिसे अप्पा के लाख छुपाएं रखने के बाद भी मैं देखती रही।
~ तुलसी पिल्लई
(पैसों का पेड़ समाप्त)
2016
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लेखिका तुलसी पिल्लई “वृंदा”के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें यहाँ।
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