एक झूठ | भावपूर्ण कहानी

तुलसी पिल्लई "वृंदा" की कहानी

एक झूठ | तुलसी पिल्लई वृंदा की कहानी | भावपूर्ण कहानी

संक्षिप्त परिचय: आपने कभी झूठ के बारे में सोचा? उसके बारे में सुनने तो को यही मिलता है कि झूठ ग़लत है। पर क्या कभी ऐसा हो सकता है कि झूठ सही लगने लगे? पढ़िए तुलसी पिल्लई की यह भावपूर्ण कहानी जो आपको यह सोचने के लिए ज़रूर मजबूर करेगी।

आज उसके चेहरे पर मुस्कान देखकर मुझे बहुत राहत मिली। उसकी प्यारी मुस्कान से मुझे लगा कि अब बसंत आ गया है, और पतझड़ जाने वाला है। उसकी आँखों की चमक एक नई सुबह की पहली किरण जैसी लगी। यद्यपि वह यथास्थिति में ही था, स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं था। लेकिन आज वह अपने बेज़ान ख्वाबों की निराशा छोड़ चुका था। उसने आज मुझसे पेपर और कलर भी मांगा था और अपने नन्हें हाथों से पेपर पर रंगीन चित्रकारी भी की थी। आज उसने मुझसे अपने स्कूल की तीसरी कक्षा की पुस्तकें पढ़ने का भी जिक्र किया था। उसने आज मुझसे टेलीविजन देखने की इच्छा भी जाहिर की थी और डीआईडी शो देखने के बाद कहा था कि ‘माँ, मैं भी एक दिन ऐसा डांस करूंगा जब मेरे पाँव ठीक हो जाएंगे।’ आज ही उसने मुझसे कहा था कि ‘माँ, मेरे लिए एक नई साइकिल ला देना, मैं स्कूल नई साइकिल चला कर जाया करूंगा। आज उसने मुझसे कहा था कि ‘माँ, मेरा फुटबॉल तुमने कहाँ रखा है? मेरे पाँव ठीक हो जाने पर मेरे फ्रेंड्स के साथ गार्डन में फुटबॉल खेलूंगा।’

सौरभ के चेहरे पर ऐसी रौनक कई सालों बाद लौटी थी। वह घटना आज भी मेरी आंखों में दौड़ती है, जब भी याद आती है। मेरी रूह कांप उठती है। तब सौरभ दो साल का था, हम मनाली से लौट रहे थे, बारिश का मौसम और घनी अंधेरी रात थी। मैं याद भी नहीं करना चाहती। उस पल को जिसने मेरे मासूम बच्चे की मासूमियत ही छीन ली। उसके दोनों पैर लाचार कर दिए। ईश्वर की इतनी कृपा है कि पैसों की कमी नहीं है। हमने देश विदेश के बड़े-से-बड़े अस्पतालों के चक्कर लगाए ताकि मेरा बच्चा जमीन पर कदम रख सके। इतने सालों से उसके उदास चेहरे को देखकर अपने आप से घृणा होने लगी थी। जैसे अपने बेटे की इस हालत की जिम्मेदार मैं ही हूँ। इतने सालों से अपने बच्चे की उदासी बर्दाश्त करना और उसे बेजान सा पलंग पर लेटे देखना। मानो कभी तो ऐसा लगता था जैसे वो अपने शरीर की पीड़ा से नहीं गुजर रहा है, मैं इस पीड़ा से गुजर रही हूँ।

सौरभ से मेरी बहुत उम्मीदें जुड़ी थी। मेरे गर्भ से लेकर उसके दुनिया में आने की यात्रा तक मेरे सुनहरे सपनों ने नीड़ बनाना शुरू कर दिया था। मैं चाहती थी कि अपने बच्चे को उंगली पकड़कर चलना सिखाऊंगी, उसको लड़खड़ाते हुए दौड़ता देखूंगी। किसी ने कुछ सोचकर ही कहा होगा कि ‘सपने तो सपने होते हैं।’

वो अक्सर मुझसे पूछता है कि ‘माँ, मेरे पैर कब ठीक होंगे? मुझे भी हिपहॉप डांस सीखना है।’ तब मुझे अपनी ही बेबसी पर दया, और ईश्वर की इच्छा पर क्रोध आता है। कभी कभी हालात से मजबूर होकर मैं अपने बच्चे की ऐसी जिंदगी से अच्छा मौत मांग लेती हूँ। फिर खुद ही सोचती हूँ, खुद को ही कोसती हूँ कि कैसी माँ हूँ मैं! मैं जिस मानसिक पीड़ा से गुजर रही हूं शायद दीपक भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं। उन्होंने तो जैसे मुझसे बात करना ही छोड़ दिया। क्योंकि इस हालत के लिए मैं उनको ही कोसती हूँ। काश! वे उस दिन शराब पीकर ड्राइव ना करते, तो मेरे बच्चे की ऐसी स्थिति कभी नहीं होती। कभी-कभी अकेले में यह भी सोच लेती हूँ कि काश! उस घटना में हम तीनों ही मारे जाते, तो कितना अच्छा होता। लेकिन यह जिंदगी है। इतनी जल्दी कहां मुक्ति मिलेगी? जीवन में संघर्ष से गुजरना ही पड़ता है।

खैर, मुझे एक बात समझ नहीं आई कि क्या एक झूठ की भी इतनी अहमियत हो सकती है? आखिर झूठ तो झूठ होता है न? फिर डॉक्टर प्रमोद ने सौरभ से यह झूठ क्यों कहा कि ‘तुम्हारे पांव में अब इम्प्रूवमेंट होने लगा है। वेलडन, तुम जल्दी दौड़ने लगोगे।’ यह शब्द जब मेरे कानों में पड़े तो मैं भी चहक गई थी। लेकिन काश! उन बातों में थोड़ी सच्चाई होती। डॉ प्रमोद की बातें सुनकर मैं भी एक बार सन्न रह गई थी और खुशी के मारे पूछ बैठी थी कि  ‘क्या सच में सौरभ चलने लगेगा?’ और डॉक्टर प्रमोद हामी भर रहे थे।

सारी सच्चाई जानकर मेरा डॉक्टर प्रमोद के लिए गुस्सा पनपने लगा था कि वह मेरे बच्चे को झूठी तसल्ली क्यों दे रहे थे? उसे वास्तविकता से अनजान क्यों रखा जा रहा था? जब उसे खुद की वास्तविकता पता चलेगी। तब उस पर क्या गुजरेगी? लेकिन में कितनी गलत थी! डॉ प्रमोद का एक झूठ ही है। जिसने सौरभ के चेहरे पर मुस्कान, चमक और जीने की आशा ला दी है। उसका बेजान शरीर भी इस उम्मीद से ही हरकत करता है कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। शायद इसी को आशा कहते हैं। लेकिन एक झूठ भी इंसान को इतना आशावादी बना सकता है। यह मैंने कभी सोचा न था। पर जो था, सो था। डॉक्टर प्रमोद के एक झूठ से सौरभ की जीने की इच्छा और कुछ करने की इच्छा बलवती हो गई। सौरभ ने कभी इतने उत्साह से नहीं कहा कि मां! मुझे खाना चाहिए। लेकिन आज कहा उसने कि मुझे खाना दो ताकि मैं स्ट्रांग बन सकूँ।

आज तो ऐसा लगता था जैसे बसंत आया हो। हर शाख पुलकित-पुलकित थी। सूरज की धूप भी सुहावनी थी। मैं बालकनी में खड़ी सौरभ को देख रही थी, जो नीचे गार्डन में अपनी कजिन सिस्टर के साथ लूडो खेल रहा था। दूर से ही मुझे देखकर मुस्कुराया और ‘बोला मम्मी प्यास लगी है पानी लाओ।’

मैं तुरंत सीढ़ियां उतरती हुई रसोई घर में से गिलास में पानी भर कर गार्डन की ओर आई तो देखा कि लूडो बिखरा पड़ा था, और सौरभ की आंखों में आंसू आए हुए थे।

मुझे देखकर बोला ‘नीतू बोल रही है कि डॉक्टर अंकल झूठे हैं। मैं कभी नहीं चल सकता माँ?’

मैंने कहा ‘नहीं, नीतू एक झूठी लड़की है। तुम जल्द ही चलने लगोगे। और डॉक्टर अंकल ने सही कहा है।’

(मैं भी अब सच को छुपाने की कोशिश कर रही थी)

वह बोला :-‘पक्का न?’

मैं बोली:- ‘हाँ, पक्का।’

वह बोला:- ‘अब नीतू के साथ कभी नहीं खेलूंगा। झूठी लड़की…एक नम्बर की झूठी हैं वो …बेड गर्ल।’

जिस आशा के पेड़ पर लगे फूल, जो अभी-अभी मुरझा रहे थे, इसका ही मुझे डर था। लेकिन सच को छुपाने से अब वो फूल फिर खिल उठे थे। सब ठीक था और सब ठीक हो जाएगा।

-तुलसी पिल्लई “वृंदा” जोधपुर (राजस्थानी)


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Picture by: Clark Young

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एक झूठ | भावपूर्ण कहानी

तुलसी पिल्लई "वृंदा" की कहानी

  1. बहुत बहुत आभार स्टोरी दिल से की पुरी टीम का, जिन्होंने मेरी इस कहानी को अपने पटल पर जगह दी। बहुत बहुत आभार आप सभी का

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