संक्षिप्त परिचय: सुन्दरी अहिरवार द्वारा लिखा गया यह हिंदी नाटक, समाज में व्याप्त कई सारी बुराइयों को दूर करने के लिए जागरूकता की प्रेरणा देता है।
मंचन मंडल-पर्दा खुलता है जिसमें एक लड़की के परिदृश्य की प्रस्तुति की जाती है।
जिसमें कल्पना स्वरूप “सिद्धेश्वरी” मंचन मंडल में एक कोने में बने चौकोर चबूतरे पर बैठी रहती है और सोचती रहती है,
“अनजान दुनिया” पहचानती हूँ मैं आसमान को, रहती हूँ धरती पर!
वह उस चबूतरे पर बैठकर पढ़ने की कोशिश करती है, लेकिन उसका पढ़ाई में मन नहीं लगता है।
एकाएक वह नील गगन (आसमान) की ओर देखती है, तो अनजान सी – उसकी परेशनियाँ उसे दिखाई देती हैं। ना जाने क्यों वह परेशनियाँ सिद्धेश्वरी को अपने प्रति परेशान कर रही थी।
उन परेशानियों को हटाकर सिद्धेश्वरी ने अपना सिर धरा (धरती) की ओर किया। तो ऐसा लगता है कि वसुंधरा भी सिद्धेश्वरी से कुछ कहानी कहना चाह रही थी! मानो वह बहुत परेशान हो, ऐसी प्रतिमा दिखाई दे रही थी।
सिद्धेश्वरी-दोनों से मुंह मोड़ कर अपनी आंखों पर हाथ रख कर बैठ गई।
थोड़ी देर बाद……
मंचन मंडल में पर्दा गिरता है….
पुनः पर्दा खुलता है जिसमें सिद्धेश्वरी के माता पिता का प्रवेश होता है। सिद्धेश्वरी के माता पिता मंच पर पूर्व दिशा की ओर बैठकर बातें कर रहे होते हैं।
अचानक से सिद्धेश्वरी देखती है कि नीलगगन (आसमान) से एक छोटी सी दिव्य ज्वाला निकलती है जो आकर सिद्धेश्वरी के पिता में प्रवेश कर गई, और नीचे देखा तो वसुंधरा (धरती) से वैसी ही एक ज्वाला निकल कर सिद्धेश्वरी की माता में प्रवेश कर समा गई।
मंचन मंडल से एक बार पर्दा गिरता है और पुनः पल बाद खुल जाता है।
सिद्धेश्वरी यह दृश्य देखकर व्याकुल हो उठती है। वह जल्दी से उठ कर अपने माता-पिता के समीप पहुंच जाती है। और एकटक वह अपने माता पिता को अचंभित होकर देखती रहती है, जैसे उसके हृदय की धड़कन थम सी गई हो।
सिद्धेश्वरी पूछती है कि “हे दिव्य ज्वाला आप मेरे माता पिता के शरीर में क्यों प्रवेश हुई हो? आखिर तुम मुझसे क्या कहना चाहती हो?”
नीलगगन (आसमान) – “हे सिद्धेश्वरी! तुम सिद्ध की वह देवी हो जो हर समस्या का समाधान करती हो। कुछ समस्याएं हमारी भी है, जिसको हम तुमसे हल करवाना चाहते हैं। और इसलिए ही मैंने तुम्हारे पिता के शरीर में प्रवेश किया है। मैं नीलगगन, तुम्हें कुछ बताने आया हूं।”
दूसरी ओर वसुंधरा कहती है (जिसने माँ के शरीर में प्रवेश किया है)
“मैं वसुंधरा हूँ, हम दोनों तुम्हें अपनी परेशानियां बताने आए हैं। वह बताने के बाद हम यहां से चले जाएंगे फिर तुम तुम्हारे माता-पिता के साथ आराम से रह सकती हो।”
….. पहला दृश्य……
मंचन मंडल का पर्दा गिरता है और नीलगगन (आसमान) सिद्धेश्वरी की कुछ निर्णायक सम प्रस्तुतियां।
नील गगन की परेशानियों के कारण……..
अत्याचार, झूठ, बेईमानी, सत्य पर पर्दा डालना, न्याय की तराजू में पाप का पलड़ा भारी और इत्यादि सामाजिक कुरीतियां और बुराइयां।
सिद्धेश्वरी का कथन -“मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि मैं कौन से अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाऊँ?”
नीलगगन का कथन- “तुम नारी होकर मुझसे पूछ रही हो कि किसके खिलाफ आवाज उठाओ? जहाँ इंसान को अत्याचार करने में शर्म नहीं आती है, तुझे सुधारने में शर्म आती है? रोज किसी न किसी से यह तुम्हें पता चल जाता है कि अन्याय कहाँ हो रहा है । तुम्हें इशारा दे दिया है समझना तुम्हारा काम है? जितने भी प्रकार के अत्याचार है जितने भी प्रकार के झूठ हैं, और जितने भी प्रकार की बेईमानी हैं, जितने भी प्रकार के पाप हैं – उनके खिलाफ ऐसे कड़वे बोल लिखो जिनके बोलने पर भी उसे कड़वे लगें। ताकि वह कोई भी बुरा कार्य भूल कर भी ना करे।
एक उदाहरण मैं तुमको देता हूं-इसी तरह लिखकर सब के समीप पहुँचाना है।
आज दुनिया के अत्याचारों से मेरी सांसे थम गई हैं,
आज में खुशी के आंसू बहाता नहीं हूँ,
खून के आंसू रोता हूँ ,
मेरी पत्नी वसुंधरा मेरी प्यार की बूँद की प्यासी है,
मेरी बूंदों से इसका दामन फूलों से भर जाता था,
लेकिन वे फूल किसी पापी के पद से कुचले जा रहे हैं।
पहले वह माह ,फागुन ,आषाढ़ फूलों से दुल्हन की तरह सजी रहती थी।
आज उसकी सुंदरता को किसी वीरान दुनिया ने गले में धारण कर लिया है।
आज मेरी वसुंधरा का वर्ण साँवला हो गया है।
मेहनती इंसान को अत्याचार और रिश्वतखोर को सम्मान दिया जा रहा है, मेरी छत्रछाया में।”
…….”दूसरा दृश्य”……..
मंचन मंडल का पर्दा गिरता है, फिर उठता है और वसुंधरा, सिद्धेश्वरी का प्रवेश होता है।
सिद्धेश्वरी का कथन -“आपकी क्या परेशानी है?”
वसुंधरा का कथन-“तुम भी नारी हो, मैं भी नारी हूँ । फिर भी तुम पूछती हो मेरी क्या परेशानी है?”
सिद्धेश्वरी का कथन- “हर नारी की सोच में अलग-अलग फैसले होते हैं। लेकिन तुम्हें क्या परेशानी है, बताएं मुझे?”
वसुंधरा का कथन -“पाप इतना बढ़ गया है कि मैं कहाँ तक अपने शीश पर धारण करूँ? मैं सोचती थी एक समय आएगा, सदियाँ बीत गयीं, लेकिन वह दिन आया नहीं। मैं सिर्फ पाप, बुराइयाँ, अत्याचार, बेईमानी आदि सभी कार्यों को अपने शरीर से हटाना चाहती हूँ। मैं केवल अपने देश में अच्छाई चाहती हूँ। मेरी और नील गगन की एक ही परेशानी है।”
सिद्धेश्वरी का कथन- “लेकिन मैं तुम्हारे दुखों को संसार के समक्ष कैसे प्रस्तुत करूँगी ?”
वसुंधरा का कथन-“जिस प्रकार तुम आसमान (नीलगगन) की परेशानी दूर करोगी वैसे ही परेशानी मेरी दूर कर देना!
मैं तुम्हें एक उदाहरण देती हूँ, तुम संसार के समक्ष प्रस्तुत कर देना।
उदाहरण-
आज मेरे नील गगन ने मुझसे मुँह मोड़ लिया,
अनजान थी उसकी परेशानियों से लेकिन परेशानी का पता चला तो उस पर मुझे बहुत दुख हुआ। उसकी परेशानी मेरी परेशानी थी। आकाश के दुखों के अंगारों से पाप तो नहीं मिटा लेकिन मेरा शरीर साँवला हो गया। इंसान ने तो आज रिश्वतों से आवास बना लिए। मेरे किसान मेरी सेवा करते हैं फिर भी उन्हें बेईमान कहती है दुनिया।”
मंचन-मंडल का पर्दा गिरता है और पुनः तीनों का प्रवेश होता है।
वसुंधरा और नीलगगन प्रतिमा ज्वाला में ज्वलित हो गए। वसुंधरा धरा में समा गई। और नीलगगन आसमान में समा गया। और इस प्रकार इस हिंदी नाटक की प्रस्तुति का समापन हुआ।
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PC: Daphne Fecheyr
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Very nice story dear