संक्षिप्त परिचय: जहाँ आज सब स्त्री पर हो रहे अत्याचारों को ध्यान में रखते हुए उन पर कविताएँ लिख रहे हैं, जो कि समय की माँग भी है वहीं एक ऐसी कविता की भी ज़रूरत है जो पुरुष के समाज में योगदान पर भी प्रकाश डाले। ऐसी ही एक कविता है ‘पुरुष का मौन’ जिसे लिखा है उषा रानी ने।
पुरुष का मौन क्यों पहाड़ सा
खड़ा रहता है
उसके जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती है
थाली बजाई जाती है
लड्डू बांटे जाते हैं
क्योंकि वो एक दुधारू गाय🐂 है
जिसे हर कोई दुहता है
उसके मन में सुख है या दुख इसकी थाह कोई नहीं पाता है
वह हर पल अपनों के लिए जीता है
जीवन का एक एक पल
दूसरों के लिए समर्पित करता है
बचपन से जवानी तक
माँ बाप के सपनों को
साकार करने के लिए दिन रात
संघर्ष करता है
तो कभी पितृहीन होकर
परिवार की बागडोर मुखिया के रुप में संभालता है
कभी छोटे भाई बहिनों के लिए
अपने सपनों की बलि चढ़ाता है
कभी परिवार की परम्परा के लिए
अपने प्यार की तिलांजलि देता है
और परिवार की खुशी के लिए
अनचाही शादी करता है
पत्नी कैसी भी हो
उसे निभाता है
पत्नी सुन्दर सुशील हो तो
अपनी किस्मत को सराहता है और बदसूरत बददिमाग हो तो
ताउम्र नरक की सजा भुगतता है
पिता बन कर संतानों की परवरिश
करने में अपना तन मन धन
सब कुछ समर्पित करता है
अपनी हर लड़ाई में
रहता है वह मौन
अपना संघर्ष किसी को नहीं
बता पाता है
एक एक तिनका इकट्ठा करके
अपने सपनों का आशियाना बनाने की कोशिश करता है
ताउम्र एक एक पैसे का हिसाब
रखता है
जिम्मेदारियों के पहाड़ के नीचे दबा उफ तक नहीं कर पाता है
इस सफर में आदमी
जीतता है या हारता
लेकिन अंतत: अपने मन में
अपनी इच्छाओं की कब्र में
अकेला ही रहता है
हर कोई उससे मांगता ही मांगता है
उसे देने कोई नहीं आता है
और एक दिन चुपचाप चल देता है अनजान सफर पर
जहाँ जाकर कोई वापस आता नहीं
आदमी का दर्द हमेशा मौन ही रहता है ।
कैसी लगी आपको यह कविता, “पुरुष का मौन’, जो एक कविता है पुरुष के समाज में योगदान पर? कॉमेंट कर के ज़रूर बताएँ और कवयित्री को भी प्रोत्साहित करें।
कविता की लेखिका उषा रानी के बारे में जानने के लिए पढ़ें यहाँ ।
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अतिसुन्दर बहेन पुरूष का मौन रहना भी गलत हैं मगर गलत होते देखना भी ईश्वर ने उसे सबसे बङा पाप भी माना हैं। मैं तो कहता हूं अगर पुरूष मौन हैं तो एक नारी को उसे पुरा हक हैं अपने मौलिक अधिकारों से ऊपर उठने का।