संक्षिप्त परिचय: कुदरत ने हम सब को एक जैसा बनाया, पर इंसान ने उस कुदरत पर पाबंदियाँ लगा दीं, सरहदें बना दिन। पर आज भी कुछ लोग हैं जिनकी इंसानियत इन सरहदों और पाबंदियों के ऊपर हैं। पढ़िए कुछ ऐसे ही लोगों पर यह कहानी।
सुबह की ताज़गी में, सादगी है कुदरती खूबसूरती की।
सुबह-सुबह उठते ही मैंने सुनी कई मधुर आवाजें – चिड़ियों की चहचहाहट, कहीं पर लोगों की कुछ आहट, मंदिर की घंटियां और कुछ मस्जिद की नमाज़। सुनकर इन सब की मधुर ध्वनि, लगता है सब कुछ प्यारा।
क्या इनकी सादगी है! कुदरती, खूबसूरत लोगों के मुख से सुनाई देते हैं मीठे बोल। सुबह-सुबह जब सुनती हूँ, लगते हैं कानों को भी मिश्री से बोल। शाम के बाद फिर से लो आ गई सुबह की भोर। बड़े तरंग और उमंग भरी है फिर से जाग उठी आशाएं।
झटपट उठकर फिर मंजिल पाने को चल पड़ी आशाएं। लताओं और सुमन के बागों से जब गुजरी तो सुगंध से महक उठी आशाएं। पुष्प मिले ताजे-ताजे कलियों पर ओस की बूंदे। मैंने छू कर देखा इनको दिल ने कहा इन सबको साथ लेकर छूकर चलूँ।
इतनी प्यारी रंग-बिरंगी तितलियों को, सुमन की सुगंध से महकती वायू को भर कर गहरी सांसो में, पुष्पों की सुगंध, शीतल वायू, पंछियों की चहचहाहट, बैलों की घंटियां, मंदिर का शंख और घंटियों की आवाजें, और मधुमक्खियों के छत्तौं पर भिन्न-भिन्न करती मधुमक्खियों की आवाजें।
ना जाने क्या-क्या! सुबह की ताज़गी में है सादगी की खूबसूरती। थोड़ी दूर ही चली थी कि तब तक सूरज सर पर चढ़ चुका था। सूखता गला, मुख पर पसीना और प्यास भी बहुत लगी थी। दूर-दूर तक देखा तो नज़दीक ही एक बहुत बड़ी सी नदी थी। दौड़ लगाई झठ से मैंने क्योंकि प्यास के मारे मेरी जान निकल रही थी ।
आसपास कुछ भी ना दिखा, सीधा जा कर हाथों में लेकर पानी से मुँह धोया, पानी पीकर फिर राहत की सांस ली। मुझे क्या पता था यह कौन सी जगह है? जो सामने था लगा कि मेरा ही जहाँ है।
जहां से निकली थी वह घर थोड़े रास्ते में मिला, बहुत प्यारा सा वह सुमन का बाग। जहां से गुजरी वो रास्ता और आने जाने वाले जो मुझे देख कर मुस्कुराते गए। कहा कुछ नहीं पर उनकी सादगी में छुपी हुई कुदरती खूबसूरती सब कुछ महसूस हुई।
मुझे तो सब अपना ही लगा। फिर यहां यह क्या देखा मैंने!
नदी में हाथ डालते समय तो कुछ नहीं सुना क्योंकि प्यासी थी पर जैसे ही प्यास बुझी तो आसपास ध्यान दिया। यहां कुछ धर्म और मजहब की थी पाबंदियां। जब सुना तो यह जाना जिस जहाँ में खड़ी हूँ वह मेरा जहाँ और मजहब नहीं है।मेरे कदमों तले की यह धरा पर और आसपास बहती नदी पर मेरा अधिकार नहीं है। लोगों ने झठ से आकर मुझको अपराधी ठहराया। मन में सोचा मैंने कि क्या अपराध किया मैंने जो मुझको नहीं नजर आया? बोल उठे कुछ लोग वहाँ के लगा रहे थे नारे वहाँ मजहब के। कांप उठा था रोम-रोम जब डांट रहे थे ,वे सब मिलकर।
शायद उनकी जमीन पर कदम रखने की। और नदी से पानी पीने की अब कीमत मुझे चुकानी थी। समझ नहीं आया क्या बोलूं। क्योंकि मदहोशी में चल पड़ी सपनों की मैं रानी थी। कौन है अपना कौन पराया लकीरों में बटी हुई इस सरहद से अनजानी थी।
बोल उठे कुछ कट्टरपंथी
“क्या सोच के यहां आ पहुंची है तू? क्या इस गुस्ताखी से अनजानी थी? यहां नहीं आता है कोई! और अगर कभी आ जाता है तो लौट नहीं पाता कोई!”
सबकी बातें सुनकर देखा, पीछे मुड़कर। सरहद से बाहर और मेरे पीछे कुछ और लोग प्यार से तड़प रहे थे। पर वो मजबूर थे उनके आगे धर्म और मजहब , हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी सरहद की दीवारें थीं। सब रोक रहे थे लोग मुझे आगे बढ़ने से। पर मैं मंजिल की दीवानी थी। कूद पड़ी दंगल में जैसे मैं ही झांसी की रानी थी। डांट रहे थे सभी मुझे फिर भी अपनी उलझन की धुन में बेगानी थी । अजनबी से लोग थे सब उनकी भाषा से अनजानी थी। भगवान को आराध्य मानने वाली मैं उस अल्लाह से अनजानी थी। ना भाषा समझ पाई उनकी ना चेहरे पहचान पाई थी। बस उनके मुख से निकले कुछ करकश से स्वर और आंखों से झलकता गुस्सा देखकर लग रहा था कि मैंने कोई पाप किया है और आब यह मुझे सजा देंगे । बस यही सोच कर यह नन्ही सी जान घबराई थी। नौजवान थे सीमा पर दोनों मजहब के । कुछ लोग जो फंसे हुए थे। मजहब की जंजीरों में भूख प्यार से तड़प रहे थे। इंसानियत बहुत दूर थी इन लोगों से। वहीं पास ही एक फूटा सा मटका पड़ा हुआ था। उठा लिया झट से मैंने। फिर से जाकर गुस्ताखी कर जल भरकर पिला रही थी उन सबको मैं। पल भर में ही तोड़ दिया आकर एक कट्ठार पंथी पाकिस्तानी ने। बहुत चाहा अपनी मृदुल भाषा से समझाना उनको पर उनको कुछ समझ ना आया क्योंकि वह सब मजहब के दीवाने थे। बंद कर दिया मुझको भी जहां पहले से ही मेरे मजहब और सरहद के ही कुछ दीवाने थे।
देख के उनको रूह कांप उठी और आंख भी छलक उठी। क्योंकि उनकी हालत बहुत दयनीय थी। मेरे झोले में पड़ी हुई कुछ मां ने दी थी – वो भोजन और मिठाइयां थीं। जब देखा कि कोई नहीं पहरे पर, झट से हम सब ने मिल बांट के खाई थी। बहुत समय तक साथ रहे फिर से चलने की ठानी थी। बहुत जांच परखने पर मिली मुझको धर्म और मजहब के दीवानों में एक मैडम जो इंसानियत की दीवानी थी। बोल उठी “क्या मदद करूँ तुम्हारी?”
इतनी नेक दिल वो महारानी थी। भोजन लाकर हमें खिलाया, प्यासों को पानी पिलाया। हमको आजाद कराने की उसने की तैयारी थी। पहुंच गए सब लोग वतन। पर मैंने कुछ और ही ठानी थी। पूछा उस इंसानियत की दीवानी से “तुमने हम पर इतनी क्यों मेहरबानी की?”
बोल उठी वह मधुर स्वार से यह तो बस दिल की चाहत थी। बहुत भले लगे उसके विचार। दिल ने और भी कुछ उसके बारे में जानने की चाहत की। तभी बोल उठी वह “अब तुम जाओ वरना फिर से पकड़ी जाओगी।”
उनसे कहा “अपना नाम और पता तो दीजिए मैं फिर से लौट के आऊंगी। एक तुम ही हो जिनके सहयोग से हिंदू मुस्लिम के धर्म और मजहब और इस नफरत के मतभेद को मैं मिटाऊंगी। भूल न जाना मुझको तुम मैं फिर लौट कर आऊंगी। तुम पाकिस्तानी लोगों में इंसानियत का पाठ पढ़ाना। मैं हिंदुस्तानी फिर से शांति अमन और स्नेह का हाथ बढाऊंगी। ये स्वीकार करोगी क्या तुम? मैं यह लड़ाई झगड़े गोले बारूद के स्थान पर स्नेह का हाथ बढाऊंगी। सादगी है, कुदरती खूबसूरती इसीलिए सादगी से रहना सिखलाऊंगी। जो खंजर से वार करते हैं, जो हथियारों की भाषा से बात करते हैं, लड़ाई दंगे कर हमें धर्म मजहब में बाटते हैं। उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाऊंगी। क्या मदद करोगी तुम मेरी? मैं फिर लौटकर आऊंगी।”
वह बोली “हाँ, क्यों नहीं यह लो पता और जाओ अब और जल्दी आना हम इंतजार करेंगे।”
इतना सुनते ही मैं खुशी से झूम उठी और उस लड़की को गले लगाया। फिर मैं आने लगी अपने वतन की ओर । जैसे ही रास्ते में घने जंगल से गुजर रही थी कि मेरा पैर फिसल गया और खाई में गिर गई। और ज़ोर से चिल्लाई। चिल्लाते चिल्लाते मेरी आंख खुल गई और जब देखा आसपास तो पता चला कि मैं तो अपने घर में ही हूँ। स्वर्ग से सुंदर घर – जहाँ माँ- पापा, दादा- दादी, भाई-बहन सभी मिलकर साथ में चाय पी रहे थे। मुझे देख कर सब एक साथ बोल उठे – “लो उठ गई महारानी। ना जाने यह ससुराल में जाकर क्या करेंगी।”
(रानी कुशवाहा)
भोपाल मध्य प्रदेश✍️
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कहानी की लेखिका रानी कुशवाह के बारे में जानने के लिए पढ़ें यहाँ ।
पढ़िए रानी कुशवाह की कविताएँ:
- सुनो क्या कहती हैं बेटियां: भारत की बेटियां सुरक्षित हैं? और अगर नहीं तो क्यों? हम क्या कर सकते हैं उन्हें सुरक्षित करने के लिए? क्या हम जो करते आए हैं वो सही है? ऐसे ही सवालों का जवाब देती कवयित्री रानी कुशवाह की यह हिंदी में कविता ‘सुनो क्या कहती हैं बेटियां’।
- बेटियाँ: रानी कुशवाह की यह कविता ‘बेटियों पर है। अपनी कविता के माध्यम से वे बेटियों का महत्व तो समझा ही रही हैं साथ ही रूढ़ीवादी सोच की वजह से उन की हो रही स्थिति पर भी प्रकाश डाल रही हैं।
- हम बेटियाँ हिंदुस्तान की: रानी कुशवाह की यह कविता हिंदुस्तान में हो रहे नारी पर अत्याचार और उसकी वजह से पैदा हो रही कठिनाइयों पर प्रकाश डालती है।
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PC: Nathan Anderson
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