संक्षिप्त परिचय: आरती वत्स की यह कविता लिखी गयी है महिला के दृष्टिकोण से समाज के लिए। एक महिला पर पुरुष-प्रधान समाज की सोच क्या असर डाल सकती है, यह कविता आपको बताएगी।
मत बता मुझे
असल लोगों की पहचान क्या होती है!
मैं तो सच को जानकर भी अनजान रही हूँ।
अपनी मौनावस्था में रहकर,
मैंने अपने ही कुछ खास रिश्तों को
खुद की नज़रों के सामने गिरते देखा है।
अपनी ही बर्बादी का
उन्हें सरेआम जश्न मनाते देखा है।।
वकालत बने रिश्तों में,
सच को सच साबित करने के लिए
सबूत माँगते देखा है।
अपने समर्पण व वफ़ाओं पर
सरेआम यूँ बेबुनियादी इल्ज़ाम लगते देखा है।
खास दोस्तों को
अपने ख़िलाफ़ झूठी गवाही देते देखा है।
खुद को खुद की ही नज़रों में
मुज़रिम बनते देखा है।
मैंने ऐसे ही कुछ खास रिश्तों के
विश्वास का खून होते देखा है।।
पीठ पीछे ख़ंजर चलते देखा है।
बहरूपिये के वेश में
अपनों में पराये होते चेहरों को देखा है।
हर कदम पर खुद को आज़माते देखा है।
सामने से साथ का वादा करने वालों को
सरेआम अपने खिलाफ़ होते देखा है।
इस क़दर हर रिश्ते को
मैंने चकनाचूर होते देखा है।।
सब कहते हैं
बदल गई हूँ मैं।
हाँ, सच में बदल गई हूँ मैं।
हमेशा के लिए मतलबी हो गई हूँ मैं।
और तुम ही बताओ
क्यूँ न बदलती मैं?
मैंने अपनी नज़रों के सामने ही
कुछ अज़ीज़ रिश्तों को फ़रेब करते देखा है।
अपने खिलाफ़ साज़िश रचते देखा है।
खुद के विश्वास का खून होते देखा है।
हर रिश्ते को बेनक़ाब होते देखा है।
खुद को टूटते देखा है।।
सच कहूँ तो,
सही मायनों में संभल गई हूँ मैं।
तनहा नहीं,
खुद के साथ रहने लगी हूँ मैं।
खुद से प्यार व
औरों से नाम-मात्र उम्मीदें करने लगी हूँ मैं।
अपने विश्वास, सम्मान और अपने व्यक्तिगत की
क़दर करने लगी हूँ मैं ।
फ़रेबी रिश्तों से दूर रहने लगी हूँ मैं ।
एक नए स्वरूप में ढ़ल गई हूँ मैं ।।
हाँ,सच में
दुनिया के लिए
बदल गई हूँ मैं।
बदल गई हूँ मैं।।
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PC: Dingzeyu Li
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