संक्षिप्त परिचय: लॉक्डाउन के हालात, बिगड़ता व्यापार और आर्थिक तंगी – कैसा होगा एक आम आदमी का जीवन ऐसे में? कुछ ऐसे ही हालात बयाँ करती है उषा रानी जी की यह छोटी सी कहानी “छप्पन भोग”।
कोरोना ने फिर अपना डेरा जमा लिया है। लॉकडाउन ने घर में नज़र बंद कर दिया है । गली-मौहल्लों की रौनकें सन्नाटे में सिमट गयी है । काम- धंधे लगभग बंद से हो गये हैं। अपने घर में बैठा मोहन इसी चिंता में उदास बैठा है। उसका अपना कारोबार था जो पिछले लॉकडाउन में चौपट हो गया था। उसका काम धंधा स्कूल के बच्चों के लिए था। स्कूलें बंद तो उसका धंधा भी खतरे में पड़ गया। गोदाम में बंद पड़ा लाखों का माल-पड़ा पड़ा खराब न हो जाये इसकी चिंता उसे रात दिन सताती। उसने इन विकट परिस्थितियों से निपटने के लिए अपनी दुकान पर ताला लगाया।
दूसरा काम ढ़ूंढ़ कर गुजारा करने लगा। लेकिन दुर्भाग्य तो जैसे हाथ धोकर पीछे पड़ गया। कोरोना की दूसरी लहर ने फिर लॉकडाउन की स्थिति में समस्या पैदा कर दी। नया काम भी बंद हो गया। अब क्या करें? कैसे करें। पहले ही आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया वाली थी। अब कैसे गुजारा होगा? 🌹
🌹मकान का किराया पहले का भी बकाया है। अब लाकडाउन चलता रहा तो फाकामस्ती की नौबत आ जायेगी। घर का खर्चा, राशन- पानी, दूध- सब्जियाँ, बिजली पानी का बिल कहाँ से भर पाऊँगा? पत्नी चाय लेकर आई। पति को चिंता में डूबे देखा तो बोली -“क्यों चिंता करते हो? ऊपर वाला कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेगा। लो चाय पी
लो। ”
उसने चाय ले ली। पत्नी के मुँह से आश्वासन भरी बातें सुनकर तसल्ली हुई। पर कितनी देर? तभी पत्नी ने थैला लाकर दिया – लो कुछ सब्जियाँ ले आओ। आज घर में एक भी सब्जी नहीं है।” साथ में सौ का नोट भी थमाया।
खैरियत यह थी। उसके कोई औलाद नहीं थी। अगर होती तो ऐसे हालात में कैसे पालता-पोसता। सोचकर ही अपने साथ काम करने वाले सोहन की याद आई जिसके चार बच्चे हैं। उसकी आमदनी भी ज्यादा नहीं है। वो बेचारा हर समय उधारी के जुगाड़ में रहता है। कभी-कभी अभाव के दु:ख वर्तमान हालातों के आगे फीके पड़ जाते हैं। शादी को दस साल हो गये लेकिन अभी तक घर में बच्चे की किलकारी नहीं गूँजी। शुरू में सोचता था कि काम-धंधा जम जायेगा तो करेंगे बच्चे। अभी मौज मस्ती कर लें।
ये किसने सोचा था कि व्यवसाय जमने की बजाय उखड़ ही जायेगा। महामारी के कारण आम साधारण का जीवन दाँव पर ही लग जायेगा।🌹
ये किसने सोचा था? आज हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है। उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही है। निराशा जब हद से ज्यादा बढ़ जाये तो चक्कर आना स्वाभाविक है। घर से सौ रूपये और थैला लेकर निकला। सड़कें सूनसान पसरी थी। दुकानें बंद थी। सब्जी के ठेला को नजरें ढूँढने लगीं ! थोड़ी दूर सब्जी वाला सड़क के किनारे बैठा दिखाई दिया। कुछ लोग सब्जी खरीद रहे थे। वो वहाँ जल्दी-जल्दी चलकर पहुँचा। सोचने लगा- क्या सब्जी लूँ?
भाव पूछने पर हक्का- बक्का रह गया। आसमान छूते भाव और तवे पर गिरती पानी की भाप बनती बूंदों से रूपये। रोज आलू की सब्जी खाते-खाते बोर हो गया। पर क्या किया जाए? गरीब की दाल-रोटी छप्पन भोग के बराबर होती है। माँ के मुंह से सुनी ये पंक्तियाँ याद हो आईं। एक किलो आलू और दस रूपये की धनिया-मिर्च लेकर वापस घर को आ गया।🌹
स्वरचित कहानी
उषा रानी पुंगलिया जोधपुर राजस्थान
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