माँ का रोपित वसंत | बचपन याद करती कविता

आशी गौर की कविता | A Hindi Poem by Aashi Gaur

माँ का रोपित वसंत | आशी गौर की कविता | बचपन याद करती कविता

संक्षिप्त परिचय: कोरोना काल में जहाँ कई लोग फिर से किसी ना किसी रूप में प्रकृति से जुड़े हैं, वहीं ये कविता एक ऐसी लड़की के मन की आत्म संतुष्टि व्यक्त करती है जिसने वर्षों पूर्व अपनी माता द्वारा रोपित एक वृक्ष में ही अपने परिवार का एक हिस्सा देखना शुरु कर दिया था और इसलिए अब उसे अकेला महसूस नहीं होता । पढ़िए बचपन याद करती यह सुंदर कविता।

बचपन के उन दिनो में,
याद है मुझे,
अक्सर तुम्हें देखा करती थी ।
दो टहनियों के बीच रस्सी डाल कर
उसमे रब्बर का एक पहिया जोड़ कर
लड़को को खेलता देख मैं भी झूला झूलने का सोचती थी ।
पर बाबा के थप्पड से डरती थी ।
हिम्मत कर के जब बाबा से मन की बात बोली थी
बहुत डाट खाई थी
तुम लड़की हो ।
कुलीन वंश की लड़की हो…..
ऐसा कह कर कुलीन वंश के बाबा ने चपट भी देवी स्वरुपा को लगाई थी ।
समय पर कुछ यूँ बदला …..
वो गली, वो स्कूल, वो सभ्य बाबा और वो तुम भी मुझ से छूट गये कभी फ़िर ना मिलने के लिए ।
तुम्हारी ठंडी छाँव जब भी चाही,
माँ के आँचल को सर पे ओढ़ लेती ।
तुम्हारा झूला जब भी याद आता,
माँ की बाहों में झूली ।
आज भी तुम तो नहीं हो,
पर तुम सा कोई घर के आंगन में है तो सही,
मेरी माँ का रोपित ।
मेरी माँ का पोषित ।
झूला तो नही झूलती हूँ
क्यूंकि बड़ी हो चुकी हूँ ।
पर अक्सर उस के पत्तो को झड़ते
और फ़िर नयी कोपलो से छोटे शिशुओं समान पत्तों को बढ़ते देखती हूँ ।
काम से थकी लौटती हूँ तो एक “सभ्य” पिता समान छाया में उसकी दो पल खडी हो जाती हूँ ।
कभी अकेले में कुछ सोचती हूँ तो एक “भाई” समान पास ही चुप चाप खड़ा रह्ता है ।
एक सच्चे साथी की तरह तू हर मौसम यूँही खड़ा रह्ता है ।
जीवन में मेरे जैसे दुख आते हैं, तुझ पर भी तो पतझड़ आता है ।
पर तुझे खड़ा देख डटा देख मुझे भी तुझ से बल मिलता है ।
वसंत में जब छोटी सी कोपल कई दिखने लगती है,
मेरे भी जीवन में नयी उम्मीद सी जगने लगती है ।
जब कोपल छोटी छोटी हरित स्वर्णिम पर्णो में बदल जाती हैं,
मुझमें भी हालातों से लड़ने की नयी ऊर्जा हृदय कोर तक भर उठती है ।
चिड़िया के छोटे छोटे बच्चे तेरे तनों पर बने अपने घोसलों से नयी पहली उड़ान भरते हैं,
जीवन में मेरे द्वारा कुछ नया फ़िर से कर गुजरने की इच्छा पंख फैलाने लगती है ।
मेरी माँ ने जो प्रकृती प्रेम सीखा
वही मुझ में भी समाया
इसीलिये मैंने तुम से एक अनकहा सा अपनापन पाया ।
तुम परिवार
तुम हिम्मत
तुम उम्मीद
तुम पतझड़
तुम सावन
तुम शीत
तुम वसंत
तुम ही माँ के रोपित
और तुम ही माँ के पोषित ।


कैसी लगी आपको बचपन को याद करती यह कविता, “माँ का रोपित वसंत”? कॉमेंट कर के ज़रूर बताएँ और कवयित्री को भी प्रोत्साहित करें।


कविता की लेखिका आशी गौर के बारे में जानने के लिए पढ़ें यहाँ 


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  • पैसों का पेड़ (भाग-3): यह कहानी ‘पैसों का पेड़’ कहानी का तीसरा भाग है।
  • पैसों का पेड़ (भाग-४): यह कहानी ‘पैसों का पेड़’ कहानी का चौथा भाग है।
  • पैसों का पेड़ (भाग-5): यह है कहानी ‘पैसों का पेड़’ का पाँचवा और आख़िरी भाग।

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PC: Deepak Nautiyal

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