हुक्का पानी

लेखक - बेढब बनारसी

hukka paani by Bedhab Benarasi | बेढब बनारसी लिखित हुक्का पानी

सिगरेट और बीड़ी हमारे समाज में आयी । आयी क्या इन्होंने हमारे ऊपर आक्रमण किया । इनका आक्रमण अंग्रेजों की भाँति न था कि आये और जो बना ले-देकर चले गये । यह मुसलमानों भाँति आये। यहीं रह गये । और उनकी संतति भी यहीं की हो गयी । पहिले पहल यहाँ तमाखू आया। काली वस्तुएँ भारतवासियों को प्रिय होती हैं। शायद इसलिए कि हम भी काले हैं। भगवान का रूप हमने काला बनाया। काले बाल हमारे मन के ऊपर साँप की भाँति लहराते हैं। विदेशों में भले ही रेशमी और शरबती और सुनहले बाल पसंद आयें, यहाँ तो काले, पापियों के हृदय के समान, काजल के समान, प्रेस की स्याही के समान, बाल हों तो हृदय उलझता है। आखें काली हों विश की टर्रा, अफ़ीम की भाँति तब वह खींचती हैं। काले तिल से स्नेह की धार निकलती हैं!

इसीलिए तमाखू लोगों को प्रिया लगी । धीरी-धीरे वह हमारे सामाजिक जीवन का अंग बन गयी। चाय के हमले के पहिले वही हमारे समाज में ख़ातिरदारी का खेल था और उसके साथ जो कविता थी वह सिगरेट और बीड़ी में तो कहाँ मिल सकती है। चिलम में जब तमाखू रखी जाती है और नारियल या गड़गड़े या फ़रशीसे शब्दों की बौछार करते धुआँ निकलता है। जहांगीर के तम्बाकू पीने का वर्णन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसका तमाखू सेब के ख़मीर से बनता था और प्रथम श्रेणी की गुलाब जल से साना जाता था। उस तमाखू में इलायची, केसर, कस्तूरी मिलायी जाती थी और जिस समय उसकी सोने-चाँदी की गंगा-जमूनी फरशी और सोने के महनालसे धुआँ निकलता था दीवान ख़ास में सुगंधी का बादल छा जाता था। अब बीड़ी कैसी भी हो चाहे सौंफ़ी हो या जाफ़रानी जहां कोई पीता है वहाँ बैठना समय की परीक्षा है । और कितना ही बढ़िया सिगरेट हो। सोबरानी हो या अब्दुल्ला किसी का धुआँ वैसा ही लगता है जैसा मुँह में रेड़ी का तेल। 

घर-घर तमाखू में चाहे केसर कस्तूरी न पड़ती हो, सजी और शीरा ही पड़ता हो किंतु उसमें जी को मिचलाने वाले गंध नहीं होती। खींचकर जब वह धुआँ निकाला जाता है और मुँह से निकल कर काले-काले छल्लों में आकाश में उठता है तब ऐसा जान पड़ता है की कृष्ण से मिलने को यमुना लहराती स्वर्ग की ओर चली जा रही है । या नारियल के जल में से छनकर धुआँ जाड़े के प्रभात में मुँह से निकलता है तब वही आनंद मन को आता है जो काजल से श्याम और मक्खन से मुलायम लहराते बालों को देखकर होता है । केवल मानसिक सुख ही नहीं तमाखू से मिलता। सामाजिक बंधन भी उससे दृढ़ होता है।

गाँव में तो तमाखू ने और भी दौड़ लगायी है। यही चिन्ह है जिससे की यह पता लगता है की जो बिरादरी से निकाल दिया गया उसका हुक्का-पानी बंद। याज्ञवल्क्य ने नहीं लिखा या पाराशर ने नहीं लिखा, मनु ने नहीं लिखा, न किसी विधानसभा से पास हुआ किंतु विधान बन गया। हुक्का का बड़ा महत्व है। 

जैसा वनस्पति आने से घी का महत्व घट गया, चाय से तुलसी की महीमा घट गयी, साबुन आने से उबटन की मर्यादा जाती रही इसी प्रकार सिगरेट बीड़ी के प्रचार से तमाखू पर आघात पहुँचा । सिगरेट-बीड़ी में वह रस कहाँ। सिगरेट कैंसर हो सकता है, बीड़ी से हृदय की धड़कन बढ़ सकती है, इनसे जो हानि होती है उनकी सूची डॉक्टर कई पृष्ठों में बना सकते हैं किंतु तमाखू का किसी डॉक्टर ने विरोध नहीं किया। हो सकता है उससे हानि होती हो, हानि तो पानी से भी होती है किंतु वह हानि वैसी ही है जैसे प्रेम से हानि होती है, दया से, करुणा से और शालीनता से, शिष्टता से। सिगरेट और बीड़ी से अधिक हानि होने की आशंका है। केवल भीतरी ही नहीं बाहरी भी । मेरे एक बंगाली प्रोफेसर थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के सहपाठी होने के नाते उन्होंने दादी बढ़ा ली। हाथ में सिगरेट लिये रह मिलटन पढ़ रहे थे। सिगरेट दाढ़ी उसी प्रकार पकड़ी जैसे पुलिस चोर को। मैं ठीक तो नहीं कह सकता किंतु मूँछ मुड़वाने की प्रथा अवश्य ही उस समय से निकली है जब सिगरेट जलाते समय मूँछों ने अग्निशिखा का आलिंगन किया होगा।

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