संक्षिप्त परिचय: गंगू के लिए साफ़ पानी ला पाना इतना कठिन क्यों था? जानने के लिए पढ़िए मुंशी प्रेमचंद की हिंदी कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’।
जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई । गंगी से बोला-यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता | गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है!
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी | जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?
ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट भगाएंगे| साहू का कुआँ गाव के उस सिरे पर है, परन्तु वहाँ कौन पानी भरने देगा? कोई कुआँ गाँव में नहीं है।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया | खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है। बोली-यह पानी कैसे पियोगे? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-पानी कहाँ से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
“हाथ-पांव तुड़ा आएगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहूजी एक पाँच लेंगे। गरीबी का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई द्वार पर झाँकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगें?”
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।
रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे मैदान में । बहादुरी का तो न जमाना रहा है,न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर थानेदार के एक खास मुकदमे की नकल ले आए। नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बे-पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने ढंग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी | गंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके का इंतजार करने लगी | इस कुँए का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊचें हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं | चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें | अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है | काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है | किस-किस बात मे हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे | कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी | कहीं देख ले तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साए मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी | इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयीं थी। इनमें बात हो रही थीं।
‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओं | घड़े के लिए पैसे नहीं है।’
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।
हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’
“लौंडियाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पाती? दस-पाँच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियाँ कैसी होती हैं!’
“मत लजाओं, दीदी! छिन-भर आराम करने को तो तरसकर रह जाते हैं। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते-करते मर जाओ, पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।’
दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी । बेफिक्रे चले गऐ थे| ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दाएँ-बाएँ चौकनी दृष्टी से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया |
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। जरा-सी आवाज न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींसच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ रस्सी छूट गई । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिल्कोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।
ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएँ की तरफ जा रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी |
घर पहुँचकर देखा कि लोटा मुहँ से लगाये जोखू वही मैला गंदा पानी पी रहा है।
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चित्र के लिए श्रेय: David Mark
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Nice story