संक्षिप्त परिचय: अजीब ही है पति-पत्नी का रिश्ता। इसमें हंसी भी है रुदन भी। लड़ाई भी है मिलन भी। सुख भी है दुःख भी। पर फिर भी एक दूसरे के साथ रहें तभी रिश्ता पूरा है। फिर जब पति, पत्नी की कोई तीव्र इच्छा पति पूरा नहीं करता तो पत्नी को क्या करना पड़ता है? जानिए मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी कौशल में।*
*आप यह कहानी यूटूब पर सुन भी सकते हैं यहाँ: https://youtu.be/c13P6W8hbEw
पंडित बलराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को बहुत दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैंकड़ो ही बार पंडित जी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थी, किन्तु पंडित जी हीला-हवाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ न कहते थे कि मेरे पास रूपये नही हैं –इनसे उनके पराक्रम में बट्टा लगता था–तर्कनाओं की शरण लिया करते थे। गहनों से कुछ लाभ नहीं एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती, ऊपर से उस पर सोनार रूपसे के आठ-आठ आने कर देता है और सबसे बड़ी बात यह है कि घर में गहने रखना चोरों को न्योता देना है। घड़ी-भर श्रृगांर के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खों का काम है। बेचारी माया तर्क-शास्त्र न पढ़ी थी, इन युक्तियों के सामने निरूत्तर हो जाती थी। पड़ोसिनों को देख-देख कर उसका जी ललचाया करता था, पर दुख किससे कहे। यदि पंडित जी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते तो यह मुश्किल आसान हो जाती | पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम में व्यतित किया करते थे। पत्नी जी की कूटनीतियाँ सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।
एक दिन पंडित जी पाठशाला से आये तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी। उन्होंने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा – यह हार किसका है?
माया बोली–पड़ोस में जो बाबूजी रहते हैं उन्हीं की स्त्री का है। आज उनसे मिलने गयी थी, यह हार देखा, बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहन कर चली आई। बस, ऐसा ही एक हार मुझे बनवा दो।
पंडित–दूसरे की चीज नाहक मांग लायीं। कहीं चोरी हो जाए तो हार तो बनवाना ही पड़े, उपर से बदनामी भी हो।
माया–मैं तो ऐसा ही हार लूँगी। २० तोले का है।
पंडित–फिर वही जिद।
माया–जब सभी पहनती हैं तो मैं ही क्यों न पहनूं?
पंडित–सब कुएं में गिर पड़ें तो तुम भी कुएं में गिर पड़ोगी? सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में ६०० रुपये लगेंगे। अगर १ रु० प्रति सैकड़ा ब्याज रख लिया जाय तो – वर्ष मे ६०० रू० के लगभग १००० रु० हो जाएँगे। लेकिन ५ वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से ३०० रू० का रह जायेगा। इतना बड़ा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? यह हार वापस कर दो , भोजन करो और आराम से पड़ी रहो। यह कहते हुए पंडित जी बाहर चले गये।
रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा -चोर,चोर,हाय, घर में चोर , मुझे घसीटे लिए जाते हैं।
पंडित जी हकबका कर उठे और बोले -कहा, कहाँ? दौड़ो,दौड़ो।
माया–मेरी कोठारी में गया है। मैनें उसकी परछाईं देखी ।
पंडित–लालटेन लाओ, जरा मेरी लकड़ी उठा लेना।
माया–मुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।
कई आदमी बाहर से बोले–कहाँ है पंडित जी, कोई सेंध पड़ी है क्या?
माया–नहीं,नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नीदं॑ खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय रे, यह तो हार ही ले गया, पहने-पहने सो गई थी। मुए ने गले से निकाल लिया | हाय भगवान !
पंडित–तुमने हार उतार क्यों न दिया था?
माया-मैं क्या जानती थी कि आज ही यह मुसीबत सिर पड़ने वाली है, हाय भगवान !
पंडित–अब हाय-हाय करने से क्या होगा? अपने कर्मों को रोओ। इसीलिए कहा करता था कि सब घड़ी बराबर नहीं जाती, न जाने कब क्या हो जाए। अब आयी समझ में मेरी बात, देखो, और कुछ तो न ले गया?
पड़ोसी लालटेन लिए आ पहुँचे घर में कोना-कोना देखा। करियाँ देखीं, छत पर चढ़कर देखा, अगवाड़े-पिछवाड़े देखा, शौच गृह में झाँका, कहीं चोर का पता न था।
एक पड़ोसी–किसी जानकार आदमी का काम है।
दूसरा पड़ोसी–बिना घर के भेदिये के कभी चोरी नहीं होती। और कुछ तो नहीं ले गया?
माया–और तो कुछ नहीं गया। बरतन सब पड़े हुए हैं। सन्दूक भी बन्द पड़े है। निगोड़े को ले ही जाना था तो मेरी चीजें ले जाता | परायी चीज ठहरी। भगवान् उन्हें कौन सा मुँह दिखाऊँगी।
पंडित–अब गहने का मजा मिल गया ना?
माया–हाय, भगवान्, यह अपजस बदा था।
पंडित–कितना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की बात में ६००रू० निकल गए, अब देखूँ भगवान कैसे लाज रखते हैं।
माया–अभागे मेरे घर का एक-एक तिनका चुन ले जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनावाया था।
पंडित–खूब मालूम है, २० तोले का था?
माया–२० ही तोले को तो कहती थी?
पण्डित–बधिया बैठ गई और क्या?
माया–कह दूँगी घर में चोरी हो गयी। क्या लेगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोड़े ही करने जायेगा।
पंडित तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पड़ेगी। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतिययेगी ही नहीं।
माया -तो इतने रूपये कहाँ से आयेंगे?
पंडित–कहीं न कहीं से तो आयेंगे ही, नहीं तो लाज कैसे रहेगी? मगर की तुमने बड़ी भूल ।
माया–भगवान से मंगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो इसे घड़ी भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बड़ा सुख मिल गया? मैं हूँ ही अभागिनी।
पंडित–अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो, पड़ोसिन से कह देना, घबराओ नहीं, तुम्हारी चीज जब तक लौटा न देंगे, तब तक हमें चैन न आयेगा।
पंडित बलराम को अब नित्य ही चिंता रहने लगी कि किसी तरह हार बने। यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी | पड़ोसिन को सन्तोष ही करना पड़ता, ब्राह्मण से डंड कौन लेता , किन्तु पंडित जी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोड़कर धनोपार्जन मेँ दत्तचित्त हो गये।
छ: महीने तक उन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड़ दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राहमण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनिय समझते थे। अब पाठशाला से आकर संध्या एक जगह “भगवत्’ की कथा कहने जाते वहाँ से लौट कर ११-१२ बजे रात तक जन्म कुंडलियाँ , वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मन्दिर में (दुर्गा जी का पाठ करते ) माया पंडित जी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कि कहाँ से मैंने यह विपत्ति सिर पर ली कहीं बीमार पड़ जायें तो लेने के देने पड़ेंगे। उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिंता व्यथित करने लगी यहाँ तक कि पाँच महीने गुजर गये।
एक दिन संध्या समय वह दिया-बत्ति करने जा रही थी कि पंडित जी आये, जेब से पुड़िया निकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोले–लो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।
माया ने पुड़िया खोली तो उसमें सोने का हार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनावट देखकर उसके अन्तःस्थल में गुदगदी सी होने लगी । मुख पर आनंद की आभा दौड़ गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछा–खुश हो कर दे रहे हो या नाराज होकर।
पंडित–इससे क्या मतलब? ऋण तो चुकाना ही पड़ेगा, चाहे खुशी हो या नाखुशी।
माया–यह ऋण नहीं है।
पण्डित–और क्या है, बदला सही।
माया–बदला भी नहीं है।
पंडित — फिर क्या है।
माया–तुम्हारी ..निशानी?
पंडित–तो क्या ऋण के लिए कोई दूसरा हार बनवाना पड़ेगा?
माया–नहीं-नहीं, वह हार चोरी नहीं हुआ था। मैंने झूठ-मूठ शोर मचाया था।
पंडित–सच?
माया–हां, सच कहती हूँ।
पंडित–मेरी कसम?
माया–तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ।
पंडित–तो तमने मुझसे कौशल किया था?
माया-हाँ?
पंडित–तुम्हे मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्या मूल्य देना पड़ा!
माया–क्या ६०० रु० से ऊपर?
पंडित–बहुत ऊपर! इसके लिए मुझे अपने आत्मस्वातंत्रय का बलिदान करना पड़ा ।
पढ़िए प्रेमचंद जी की अन्य कहानिया:
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