एक भावांजलि ….. पत्थर को | हिंदी कविता

कवि प्रभात शर्मा की रचना | written by Prabhat Sharma 24/12/2020

एक भावांजलि ….. पत्थर को | प्रभात शर्मा की कविता

संक्षिप्त परिचय : एक पत्थर के जन्म से ले कर पत्थर की अनेकों विशेषताओं का वर्णन करती ये पत्थर पर कविता, पत्थर को सही मायने में भावांजलि है।

पृथ्वी के साथ जब
पत्थर का सृजन हुआ
पिघला हुआ लावा‌ जब
चक्रित बहुत बिधि हुआ
उच्चतम ताप-दाब में तप कर
गह्वर से शिखरीय संरचना कठोरतम
उच्च से अति उच्च पर्वतों का जन्म हुआ ।

उनके ही कठोर अंग
बह-बह कर नदियों में ,
कट-कट कर कलपुर्जों से
छोटे बड़े शिला खण्ड ,
उनके अंग प्रत्यंग ही
पत्थरों के नाम से पहिचाने जाते हैं ,
वक्त के थपेड़े सह ,
अति तप्त ज्वालाओं ,पिघले हुए लावाओं,
कटते,टूटते,घिसटते , लुढ़कते ,उठते ,गिरते ,
बस पत्थर बन जाते हैैं।

जितने अधिक दाब औ ताप में जो बनता है
उतना ही उच्च श्रेणी का पत्थर कहलाता है,
शिखरों से खानों तक ,अहर्निश कट-कट कर
मानवीय विकास के विपुल मानदंड बढ़ाता है ।
मशीनों से टूट कर , कुट कुट कर भांति-भांति
सड़क ,बांध ,भवन बहुमंजिला बनाता हैं ।

देह संगमरमर सी , पत्थर दिल औ दिम़ाग
अंग-प्रत्यंगों के बहु उपमान बन जाते हैं ।
गुर्दे में,पित्त में ,और बहु अंगो में
छोटे से पत्थर बन पथरी कहाते हैं ।

छैनी-हथोड़े की झेल कर विविध मार ,
ये ही पत्थर फिर मूरत कहलाते हैं ।
देवी के , देवता के ,राजा महाराजा के,
प्रिया के ,प्रियतम के , सैनिक औ नेता के ,
इष्ट के , विशिष्ट के ,और मन भावन के,
रूप बहु पाते हैं ,मन को रिझाते हैं ,
ताप को बुझाते हैं , वांछित बहु दे देते, जब
देवता बन जाते हैं, मन्दिर में सज़ जाते हैं ।

किन्तु यह कलुषित मन , स्वार्थी ,मति मन्द ,
क्रोधित , बहु क्षोभित सा ,मानव जो मद-अन्ध,
फेंकता है औरों पर ,चिन देता नींव में ,
बन जाते भवन-महल , पर दर्द नहीं होता है ।
लेकिन जब शोध में,क्रोध में ,प्रतिशोध में
‘दिल’ को कहता है पत्थर , तो
हम पत्थरों का भी
दिल बहुत रोता है ,
दर्द बहुत होता है ।

पत्थर को इतना भी कमतर मत आंको ,
हमने जो सहा है, अग्नि ताप ,अति दबाव,
आरी की कटन,विस्फोटक की मार ,
दर-दर की ठोकरें , पानी की धार ,
दुरमुट की कूट औ क्रेनों की उछाल,
मिट्टी, पानी , सीमेंट की हर दिन की लार ,
संतराश के पैने औजारों का वार ,
उन्नत गिरि के शिखरों से
सागर के तल तक में ,
मैं ही जा पाया हूं , पत्थर कहलाया हूं ।

पर ,
” दिल “ही बिन देखा है ,
उसका नहीं लेखा है ,
अस्थि हीन , शक्तिमान ,
जीवन का एकाधार,
अनवरत कर्मशील ,
मर्मशील , धर्मशील ,
राज़ों का राज़दार ,
सृष्टि का श्रृंगारकार
प्रेमाम्बु का आगार ,
‘ दिल ‘ ही तो है ,
जहां कभी पत्थर तो क्या ,
पथरी भी नहीं होती है ।

पर मैं तो पत्थर हूं
दिल नहीं मैं हो सकता ,
पत्थरपन नहीं खो सकता ,
वो ही मेरी ताकत है ,
वो ही तो मन-भावत है ,
‘पत्थर ‘ ‘दिल’ कभी नहीं ,
नहीं ‘ दिल ‘ ,’पत्थर’ हो सकता ।
नहीं ‘पत्थर’ ‘, दिल’ हो सकता ।
मैं तो बस पत्थर हूं ,
मैं तो बस पत्थर हूं,
मैं तो बस पत्थर हूं ।


कैसी लगी आपको पत्थर पर यह विशेष कविता ? कॉमेंट कर के ज़रूर बताएँ और कवि को भी प्रोत्साहित करें।


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PC: Erik-Jan Leusink

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