संक्षिप्त परिचय: पैसों का पेड़, तुलसी पिल्लई जी की लिखी हुई कहानी है। इस कहानी में लेखिका अपने बचपन की याद करते हुए एक दिलचस्प क़िस्सा साझा कर रही हैं जो एक पैसों के पेड़ से सम्बंधित है। यह कहानी पाँच भागों में लिखी गयी है और यह भाग इस कहानी का चौथा भाग है। आप इस कहानी का पहला भाग पढ़ सकते हैं यहाँ, दूसरा भाग यहाँ और तीसरा भाग यहाँ।
मैं डर गई कि अप्पा अब कभी मुझे अपने पैसों का पेड़ नहीं बताएंगे।एक बार फिर से अप्पा की घुमावदार बातों में आ फंसी।
पता नहीं, क्यों अप्पा मुझे पैसों का पेड़ बताने का नाम ही नहीं ले रहे थे? मेरा अप्पा पर अटूट विश्वास था कि अप्पा के पास जरूर पैसों का पेड़ है और मुझे कैसे भी करके पैसों का पेड़ देखना है।
मैंने अप्पा से कहा :- “अप्पा, बताओ न? मुझे आपके पैसों का पेड़ ? अब मैं किसी को नहीं बताऊँगी।”
अप्पा मुसकुराते हुए बोले :- “नहीं रे बाबा, तुझे नहीं बताऊँगा। देख लिया, एक बार बता कर के, अगर तुझे बताया तो तू सोनू को बताएगी, फिर दलों को, फिर भूमा को, मीना को, अन्नू को, तेरी माँ को, तेरे पापा को, फिर तेरी पैदमा को, सबको बता देगी। सब मेरे पेड़ से पैसे तोड़ लेंगे ओर मैं करोड़पति बनने के स्थान पर रोड़पति बन जाऊंगा।मेरा पैसों का पेड़ पूरा खाली हो जाएगा।”
मैंने कहा :- “सच में नहीं बताऊँगी।”
अप्पा बोले :- “नहीं।”
अप्पा से मेरा और भाई – बहनों का संबंध मित्रवत हैं, अप्पा हम सभी के लिए एक बालक रहें हैं। उम्र की सीमा हमें बांध नहीं सकी। मित्र बालकों में कभी-कभी लड़ाई होती हैं। वह कभी-कभी एक दूसरे से बात नहीं करते। लेकिन अप्पा से मैं कभी नाराज नहीं हुई। बस धमकाती जरूर थी कि अब से बात नहीं करूंगी। लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने किसी दिन उनसे बात न की हो। अगर अप्पा किसी दिन मुझसे बात न करे तो मैं बेचैन हो जाती थी। मैंने आज तक अपने जीवन का 95% समय अप्पा के साथ बिताया है। मैं अप्पा की गोद में, अपने दोनों हाथों को गर्दन में हार की तरह डाले और अपना सिर अप्पा के कंधे पर रखकर, किसी अदभुद शांति में लीन होकर आँख मूंदकर न जाने स्वर्ग की सैर कर आती थी । मैं बेपरवाह अप्पा की गोदी में बैठ जाती थी। उनके गालों को चूम लेती थी और उनका मुंह बिगाड़कर कच – कच करना और कहना गंदा कर दिया। मेरा मेकअप खराब हो गया। अब फिर से फेस पाउडर लगाना होगा और मैं इस पर खिलखिला कर हँसने लगती। मेरी स्मृतियों से यह चलचित्र कभी नहीं मिटेंगे। खैर! मैं भावुक मन के द्वारा अपने लक्ष्य से भटकने लगी हूं। हम सब फिर से अप्पा के पैसों के पेड़ पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
अप्पा अपनी पराजय कभी स्वीकार नहीं करते थे। अप्पा इस बात पर अड़े रहे कि उनके पास पैसों का पेड़ है। मैंने इस रहस्य को खोलने की भरपूर कोशिश की। लाखों बार पूछने पर भी अप्पा ने अपने पैसों का पेड़ नहीं बताया तो मैं अप्पा को धमकाने लगी।
मैंने गुस्से में अप्पा से कहा :- “चुपचाप बता दो पैसों का पेड़, वरना देख लेना, मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।”
अप्पा तो मुझे उकसाने लगे :- “क्या करोगी ? जो करना है, वो कर लो। मैं नहीं बताऊँगा पैसों का पेड़।”
(मैं भी कहाँ हार मानने वाली थीं ?)
मैंने कहा :- “नहीं बता रहे हो न ? ठीक हैं, मैं तुम्हारी पोल खोल दूँगी पैदमा से।”
अप्पा दुविधा में :- “कौन सी पोल ?”
मैंने कहा :- “वही तुमने कहा था न कि पैदमा चोर हैं। अब मैं पैदमा को बोलूँगी। अप्पा कह रहे हैं कि पैदमा चोर हैं।फिर मजा आएगा। तब तुमको पैदमा डंडे से मारेंगी। अब बोलो नहीं बताओगे ? पैसों का पेड़ ?”
मेरे अप्पा नाटकखोर तो हैं ही, कहने लगे :- “नहीं, नहीं, ऐसा मत करना। मेरी बेटी नहीं हैं ? पैदमा को यह बात मत बताना, मुझे बहुत मारेगी।”
मैंने कहा :- “अच्छा, तो चुपचाप बता दो, अपने पैसों का पेड़।”
अप्पा बोले :- “प्लीज ऐसा मत कर, मैं हाथ जोड़ता हूँ। तुम्हारे पांव पड़ता हूं। पैदमा मुझे बहुत मारेगी।”
मैंने कहा :- “फिर बताओ न ? मुझे पैसों का पेड़ ?”
अप्पा बोले :- “पक्का, शाम को बताऊँगा।”
फिर शाम का इंतजार किया गया।शाम हुई अप्पा ने कहा सुबह, सुबह हुई अप्पा ने कहा दोपहर, दोपहर हुई अप्पा ने कहा कल, कल हुआ अप्पा ने कहा परसों और ऐसे दिन गुजरते गए।
आखिर मैंने अप्पा से परेशान होकर पैदमा से कह ही दिया कि तुमको पता है, पैदमा, अप्पा तुम्हारे बारे में क्या बोलते हैं ?
पैदमा बोली :- “क्या बोलते हैं?
मैंने कहा :- “पहले तुम बताओ? तुम उनको डंडे से मारोगी ?”
पैदमा बोली :- “जरूर कुछ गलत बात की हैं ? जल्दी बता, अब उस आदमी को जरूर मारूँगी।”
मैंने कहा :- “अप्पा ने कहा तुम एक नम्बर की चोर हो।”
पढ़िए इस कहानी का अगला भाग:
पैसों का पेड़ (भाग-5): यह है कहानी ‘पैसों का पेड़’ का पाँचवा और आख़िरी भाग।
कैसा लगा आपको बचपन के दिन याद दिलाती यह कहानी ‘पैसों का पेड़’ का तीसरा भाग? कॉमेंट में ज़रूर बताएँ और लेखिका को भी प्रोत्साहित करें।
लेखिका तुलसी पिल्लई “वृंदा”के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ें यहाँ।
पढ़िए तुलसी पिल्लई ‘वृंदा’ की बचपन की एक और कहानी:
- दाढ़ी बनाने की कला: लेखिका अप्पा को दाढ़ी बनाते हुए देखती हैं और फिर उनका भी मन करता है कि वो उनकी दाढ़ी बनाएँ। पर क्या वो उनकी दाढ़ी बना पाती हैं? जानने के लिए पढ़िए लेखिका तुलसी पिल्लई “वृंदा” की बचपन को याद करती यह कहानी “दाढ़ी बनाने की कला”। (bachpan ki kahani)
बचपन के दिन याद करती और कहानियाँ आप पढ़ सकते हैं यहाँ:
- निक्की, रोज़ी और रानी, लेखक – महादेवी वर्मा: इस कहानी में है एक बच्ची और उसके तीन पालतू जानवर। बच्ची के निःस्वार्थ प्रेम और प्रीति की बचपन को याद करती हुई यह कहानी ।
- दो सखियाँ : दो सखियाँ हैं – मुन्नी और रामी – जिनमें से एक अमीर है एक गरीब। पर साथ में पढ़ने लिखने और बड़े होने के बाद उनका जीवन कैसे एक दूसरे से बंधता है उसकी कहानी है ‘दो सखियाँ’ जिसे लिखा है ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ ने।
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PC: Arunava
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